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४, २, ६, १६६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणां [३११ होति [ एत्तियाणि ] ण होति त्ति जाणावण?मागदो । हिदिसमुदाहारो किमट्ठमागदो ? एदिस्से हिदीए एत्तियाणि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होति, एत्तियाणि ण होति त्ति जाणावणटुं । ण चे तिण्णि अणियोगद्दाराणि मोत्तूण एत्य चउत्थमणियोगदारं संभवदि, अणुवलंभादो । पयडिटिदिसमुदाहाराणं हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणपरूवणटुं होदु णाम, पयडि-हिदीओ अस्सिदूण तत्थ हिदिबंधज्झवसाणहाणपरूवणुवलंभादो । ण जीवसमुदाहारस्स, तत्थ तदणुवलंभादो ति ? ण एस दोसो, ठिदीणं कजे कारणोक्यारेण ठिदिबंधज्झवसाणहाणववएसोवलंभादो । ण च जीवसमुदाहारो उवयारेण हिदिबंधज्झवसाणहाणसण्णिदद्विदीयो ण पस्वेदि, तत्थ जीवविसेसिदहिदिपरूवणुवलंभादो। अधवा, ठिदिबंधज्झवसाणहाणमासओ त्ति जीवाणं तत्थ तव्ववएसो त्ति ण दोसो।
जीवसमुदाहारे त्ति जे ते णाणावरणीयस्स बंधा जीवा ते दुविहा-सादबंधा चेव असादबंधा चेव ॥ १६६ ॥ __पुवुद्दिट्टअहियारसंभालणटं जीवसमुदाहारो पयदं ति अज्झाहारो कायव्वो, अण्णहा बातका परिशान करानेके लिये प्रकृतिसमुदाहारका अवतार हुआ है। स्थितिसमुदाहार किस लिये आया है ? इस स्थितिके इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं और इतने नहीं होते हैं, इसका परिक्षान कराने के लिये स्थितिसमुदाहार प्राप्त हुआ है। इन तीन अनुयोगद्वारोंको छोड़कर यहां किसी चौथे अनुयोगद्वारकी सम्भावना नहीं है, क्योकि, वह पाया नहीं जाता।
शंका-स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये प्रकृतिसमुदाहार व स्थितिसमुदाहारकी सम्भावना भले ही हो, क्योंकि, प्रकृति व स्थितिका आश्रय करके वहां स्थितिबन्धाभ्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा पायी जाती है। किन्तु जीघसमुदाहारकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, वहां उनकी प्ररूपणा पायी नहीं जाती?
समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्यमें कारणका उपचार करनेसे स्थितियोंकी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा पायी जाती है । और जीवसमुदाहार उपचारसे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञाको प्राप्त हुई स्थितियोंकी प्ररूपणा न करता हो, ऐसा है नहीं; क्योंकि, उसमें जीवसे विशेषताको प्राप्त हुई स्थितियोंकी प्ररूपणा पायी जाती है । अथवा, चूँकि स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान आस्रव है, अतः वहाँ जीवोंकी उक्त संज्ञामें कोई दोष नहीं है।
जीवसमुदाहार प्रकृत है। जो ज्ञानावरणीयके बन्धक जीव हैं वे दो प्रकार हैंसातबन्धक और असातबन्धक ॥१६६॥
पूर्वोहिष्ट अधिकारका स्मरण करानेके लिये 'जीवसमुदाहार प्रकृत है' ऐसा अभ्याहार करना चाहिये, क्योंकि अन्यथा परिज्ञान नहीं हो सकता। 'सानुबंधा'
१ अ-आ-काप्रतिषु 'जाणाषणटुं च' इति पाठः। २ आ-का-ताप्रतिषु 'परूवणतं' इति पाठः। ३ अप्रतौ जीवसमुदाहारो' इति पाठः। ४ ताप्रतीति ' इत्येतत्पदं नास्ति ।
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