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________________ १, २, ६, ९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्वाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। कारणं सुगमं । पुणो चउत्थजीवेण पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि। एदं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । विदियाए फालीए अवणिदाए तिस्से बिदियसमओ गलदि । तदियाए अवणिदाए तिस्से तदियसमओ गलदि । एदेणेव कमेण रूवूणुक्कीरणद्धामेत्तेसु पुणरुत्तट्ठाणेसु उप्पण्णेसु पुण पच्छा एदेणेव चरिमफालीए पादिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कारणं सुगमं । एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तजीवे अस्सिद्ण रूवूणुक्कीरणद्धाए अहियकंदयमेत्तअपुणरुत्तट्ठाणाणि उप्पाइय पुणा पुविल्लंतिमट्ठविदजीवमस्सिदूण अपुणरुत्तट्ठाणुप्पत्तिं वत्तइस्सामो । तं जहा- अंतिमजीवेण अप्पिदहिदिखंडयस्स चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि जं सेसमेइंदियउक्कस्सहिदिसंतकम्म होदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं, पुव्वमणुप्पण्णत्तादो । एत्थ एइंदियट्टिदी णाम संदिट्ठीए दो इसी जीवके द्वारा अन्तिम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है । इसका कारण सुगम है । पुनः चतुर्थ जीवके द्वारा प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है। द्वितीय फालिके विघटित होनेपर उसका द्वितीय समय गलता है। तृतीय फालिके विघटित होनेपर उसका तृतीय समय गलता है। इसी क्रमसे एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त स्थानोंके उत्पन्न हो जानेपर फिर पीछे इसी जीवके द्वारा अन्तिम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान है। इसका कारण सुगम है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीवोंके आश्रयसे एक कम उत्कीरणकालसे अधिक स्थितिकाण्डक प्रमाण अपुनरुक्त स्थानोंको उत्पन्न कराके फिर पूर्वमें स्थापित अन्तिम जीवका आश्रय करके अपुनरुक्त स्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। यथा- अन्तिम जीवके द्वारा विवक्षित स्थितिकाण्डककी अन्तिम . फालिके विघटित किये जाने पर उत्कीरणकाल का अन्तिम समय गलता है जो कि एकेन्द्रियको उत्कृष्ट स्थितिमें शेष होता है। यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति पूर्वमें नहीं हुई है । यहां संदृष्टि में (मूलमें देखिये ) एकेन्द्रियस्थितिके लिये दो १ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः । छ.११-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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