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छक्खंडागमे वेयणाखंड
कुदो ? अपजत्तकाले अइविसोहीएं द्विदिबंधापसरणणिमित्ताए अभावादो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९५॥
अपजत्तकाले सन्चविसुद्धेण असंजदसम्मादिट्टिणा बज्झमाणहिदिबंधादो अपजत्तकाले चेव असंजदसम्मादिट्ठिणा सन्वुक्कट्ठेसंकिलेसेण बज्झमाणद्विदीए संखेजगुणत्तं पडि विरोहाभावादो |
तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ विदिबंधो
संखेज्जगुणो ॥ ९६ ॥
कुद ? अत्तअसं जद सम्मादिट्टिसव्वुक्कट्टसंकिलेसादो पज्जत्तअसंजदसम्मादिद्विसव्वुक्कडसंकिलेसस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो ।
सण्णिमिच्छाइट्ठिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९७ ॥
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कुदो ? असंजदसम्मादिट्ठिस्स सव्वुक्कट्ठसंकिलेसादो सणिमिच्छाइद्विपंचिंदियपजत्तसव्वजहण्णसंकिलेसस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो, संकिलेसवडीए ट्ठिदिबंधवडिणिमित्तत्तादो ।
क्योंकि, अपर्याप्तकालमें स्थितिबन्धाप सरणमें निमित्तभूत अतिशय विशुद्धिका अभाव है ।
[ ४, २, ६, ९५.
उसीके अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९५ ॥
क्योंकि, अपर्याप्तकालमें सर्वविशुद्ध असंख्यात सम्यग्दृष्टि जीवके द्वारा बांधे जानेवाले स्थितिबन्धकी अपेक्षा अपर्याप्तकालमें ही सर्वोत्कृष्ट संक्लेशसे संयुक्त असंयत सम्यग्दृष्टि द्वारा बांधे जानेवाले स्थितिबन्धके संख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं है ।
उसके पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९६ ॥
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इसका कारण यह है कि अपर्याप्त असंयत सम्यग्दृष्टिके सर्वोकृष्ट संक्लेशकी अपेक्षा पर्याप्त असंयत सम्यष्टष्टिका सर्वोत्कृष्ट संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है ।
संज्ञी मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९७ ॥ कारण कि असंयत सम्यग्दृष्टिके सर्वोत्कृष्ट संक्लेशकी अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याशकका सर्वजघन्य संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है, और संक्लेशकी वृद्धि ही स्थितिबन्धवृद्धिका निमित्त है । अथवा, मिथ्यात्वके उदय वश असंयत सम्यग्दृष्टिके सर्वोत्कृष्ट
१ प्रतिषु ' अइसुद्धविसोहीए ' इति पाठः । २ अप्रतौ ' सव्वुक्कस्स ' इति पाठः । ३ सन्नीपज्जत्तियरे अरिओ य ( उ ) कोडिकोडीओ । ओघुक्कोसो सन्निस्स होइ पज्जत्तगस्सेव ॥ क. प्र. १,८२
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