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________________ ४, २, ६, ११७.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ ११४ ॥ कुदो ? थोवूणपलिदोवमद्धच्छेदणयपमाणत्तादो थोवूणपलिदो वमपढमवग्गमूलच्छेद यत्तदो । एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ ११५ ॥ at गुणगारो ? असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणमपज्जत्तयाणं चउरिंदिय-तीइंदियबीइंदिय- एइंदिय- बादर - सुहुमपज्जत्तापज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणं जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सिया ट्ठिदिति ॥ ११६ ॥ एत्थ जधा सणिपज्जत्तणाणावरणादीणं परूवणा कदा तथा कायव्वा । णवरि एत्थ अपणो द्विदीर्ण पमाणं जाणिदूण वत्तव्वं । एयपदे सगुणहाणिट्टाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥ ११७ ॥ सुगमभेदं । [ २९७ नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ ११४ ॥ कारण यह कि वे पल्योपमके कुछ कम अर्धच्छेदों के बराबर होनेसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूल के अर्धच्छेदोंसे कुछ कम हैं । एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ ११५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल हैं । संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय बादर व सूक्ष्म इन पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके आयुको छोड़ शेष सात कर्मोंका जो प्रदेशाय प्रथम समयमें है उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर वह दुगुणहीन हो जाता है, इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक वह दुगुणहीन दुगुणहीन होता जाता है ॥ ११६ ॥ यहां जैसे संज्ञी पर्याप्तकके ज्ञानावरणादिकोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि यहां अपनी स्थितियोंका प्रमाण जानकर कहना चाहिये । एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात वर्गमूलों के बराबर है ॥ ११७ ॥ यह सूत्र सुगम है । छ. ११-३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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