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________________ २५६ j छक्खडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ६, ११३. पढमवग्गमूलाणि असंखेज्जाणि, णाणागुणहाणिसलागाहि कम्महिदीए ओवट्टिदाए गुणहाणिपमाणुप्पत्तीदो। एसा गुणहाणी सव्वकम्माणं सरिसा; कम्मट्ठिदिभागहारभूदणाणागुणहाणिसलागाणं कम्मट्ठिदिपडिभागेण पमाणत्वलंभादो । णाणापदेसगुणहाणिटाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ११३ ॥ एत्थ मोहणीयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमस्स किंचूणद्धच्छेदणयमेत्ताओ। तं कधं णव्वदे ? चरिमगुणहाणिदव्वादो पढमणिसेयो असंखेजगुणो त्ति पदेसविरइयअप्पाबहुगादो । णाणावरणादीणं पुण णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमपढमवग्गभूलअद्धच्छेदणेहिंतो थोवाओ। कुदो ? एदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे असंखेजपलिदोवमबिदियवग्गमूलुप्पत्तीदो। तं पि कुदो णव्वदे ? मोहणीयणाणागुणहाणिसलागाणं दो-तिष्णि-सत्तभागेसु विसेसाहियबिदियवग्गभूलछेदाणुवलंभादो। नानागुणहानिशलाकाओंका कर्मस्थितिमें भाग देने पर गुणहानिका प्रमाण प्राप्त होता है। यह गुणहानि सब कर्मोकी समान है, क्योंकि, कर्मस्थितिके भागहारभूत नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण कर्मस्थितिप्रतिभागसे पाया जाता है।। .नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं॥११३॥ यहां मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकायें पल्योपमके कुछ कम अर्धच्छेदोंके बराबर हैं। शंका-वह कैसे जाना जाता है ? समाधानवह ' अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे प्रथम निषेक असंख्यातगुणा है' इस प्रदेशविरचित अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। परन्तु शानावरणादिकोंकी नानागुणहानिशलाकायें पल्योपम सम्बन्धी प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे स्तोक हैं, क्योंकि, इनका विरलन कर द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर पल्योपमके असंख्यात द्वितीय वर्गमूल उत्पन्न होते हैं। शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? समाधान—चूंकि मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकाओंके दो-तीन सात भागोंमें विशेष अधिक द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेद पाये जाते हैं, अतः इसीसे उतने द्वितीय वर्गमूलोंकी उत्पत्तिका ज्ञान होता है। १नानाद्विगुणवृद्धिस्थानानि चांगुलवर्गभूलच्छेदनकासंख्येयतमभागप्रमाणानि । एतदुक्तं भवति.अंगुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशेर्यत् प्रथमं वर्गभूलं तन्मनुष्यप्रमाणहेतुराशिषण्णवतिच्छेदनविधिना तावच्छिद्यते यावद् भागं न प्रयच्छति । तेषां च छेदनकानामसंख्येयतमे भागे थावन्ति छेदकानि तावत्सु यावानाकाशप्रदेशराशिस्तावत्प्रभाणानि नानाद्विगुणस्थानानि भवन्ति । क. प्र. (मलय) १,८८. २ तापतौ ' पलिदोवमस्स बिदिय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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