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________________ [ ३३ १, २, ५, २०.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं __ अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो - सव्वत्थोवा उक्कस्सए ठाणे जीवा । जहण्णए ठाणे जीवा अणंतगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सए ट्ठाणे जीवा असंखेज्जगुणा । अजहण्णए ठाणे जीवा विसेसाहिया । अणुक्कस्सए द्वाणे जीवा विसेसाहिया । सव्वेसु हाणेसु जीवो विसेसाहिया । एवमाउव-णामा-गोदाणं ॥ १८ ॥ _जहा वेदणीयस्स उक्कस्साणुक्कस्सक्खेत्तपरूवणा कदा तहा आउव-णामा-गोदाणं पि खेत्तपरूवणं कायव्वं, विसेसाभावादो । एवमुक्कस्साणुक्कस्सखेत्तपरूवणा समत्ता । सामित्तेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहणिया कस्स ? ॥ १९॥ ___ जहण्णपदणिद्देसो सेसपदपडिसेहफलो । णाणावरणीयणिदेसो सेसकम्मपडिसेहफलो। खेत्तणिदेसो दव्वादिपडिसेहफलो । कस्से त्ति देव-णेरइयादिविसयपुच्छा। अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स तिसमयआहारयस्त तिसमयतम्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स सव्वजहणियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा ॥२०॥ अल्पबहुत्वको कहते हैं- उत्कृष्ट स्थान में जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य स्थानमें जीव अनन्तगुण हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य स्थानमें जीव विशेष अधिक है। उनसे अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक है। इसी प्रकार आयु, नाम व गोत्र कर्मके उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट वेदनाक्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥१८॥ जिस प्रकार वेदनीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार आयु, नाम व गोत्र कर्मके भी उक्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टक्षेत्रप्ररूपणा समाप्त हुई। स्वामित्वसे जघन्य पदमें ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ १९ ॥ जघन्य पदका निदश शेष पदोंके प्रतिषेधके लिये किया है। ज्ञानावरणीयका निर्देश शेष कौंका प्रतिषेध करनेवाला है। क्षेत्रका निर्देश द्रव्यादिकका प्रतिषेध करता है। - किसके होती है ' इस निर्देशसे देव व नारकी आदि विषयक पृच्छा प्रगट की गई है। __ अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीव लब्ध्यपर्याप्तक, जो कि त्रिसमयवर्ती आहारक है, तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान है, जघन्य योगवाला है, और शरीरकी सर्वजघन्य अवगाहनामें वर्तमान है; उसके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती १ अ-काप्रत्योः 'जीवा' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते । २ सुहुमणि गोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अंगुलअसंखभागं जहणमुक्कस्सयं मच्छे ।। गो. जी. ९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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