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________________ १४ ] छवखंडागमे वेयणाखंड सुहुमणिगादा अणता अस्थि, तत्थ एक्कस्स गहणट्ठमण्णदरस्स सुहुमणिगोदजीवस्से ति उत्तं । तत्थ पज्जत्तणिराकरणमपज्जत्तस्से त्ति उत्तं । पज्जत्तणिराकरणं किमठ्ठे कीरदे ? अपज्जत्तजहण्णोगाहणादो पज्जत्तजहण्णोगाहणाए बहुत्तुवलंभादो । विग्गहगदीए जागाणा विपुव्विल्लोगाहणाए सरिसा त्ति तप्पडिसेह तिसमयआहारयस्से त्ति भणिदं । उजुगदी उप्पण्णो त्ति जाणावणङ्कं तिसमयतन्भवत्थस्से त्ति भणिदं । एग-दो- तिणि वि विग्ग काढूण उप्पाइय छसमयतव्भवत्थस्स जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, पंचसु समएसु असंखेज्जगुणाए सेडीए वड्ढिदेण एगंताणुवड्डिजेोगेण वड्ढमाणस्स बहुओगाहणम्पसंगादो' । पढमसमयआहारयरस पढमसमयतव्भवत्थस्स जहणक्खेत्तसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ आयदच उरस्सखेत्तागारेणं द्विदम्मि ओगाहणाए त्थोवत्ताणुववत्तदो । उजुगदीए उप्पण्णपढमसमम्मि आयदचउरंस सरुवेण जीवपदेसा चिट्ठेति त्ति कथं णव्वदे ? पवाइ सूक्ष्म निगोदिया जीव अनन्त हैं, उनमेंसे एकका ग्रहण करनेके लिये 'अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीवके ' ऐसा कहा है । उनमें पर्याप्तका निराकरण करनके लिये अपर्याप्तके ' ऐसा निर्देश किया है । शंका- पर्याप्तका निराकरण किसलिये किया जा रहा है ? समाधान - अपर्याप्त की जघन्य अवगाहनासे चूंकि पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना बहुत पायी जाती है, अतः उसका निषेध किया गया है । विग्रहगतिमै चूंकि जघन्य अवगाहना भी पूर्व अवगाहनाके सदृश है, अतः उसका निषेध करनेके लिये 'त्रिसमयवर्ती आहारक' ऐसा कहा है । ऋजुगतिसे उत्पन्न हुआ, इस बातके ज्ञापनार्थ 'तृतीय समयघर्ती तद्भवस्थ ' ऐसा कहा है । 6 [ १, २, ५, २०. " शंका- एक, दो अथवा तीन भी विग्रह करके उत्पन्न कराकर षष्ठसमयवर्ती तद्भवस्थ निगोद जीवके जघन्य स्वामीपना क्यों नहीं देते ? समाधान- नहीं, क्योंकि, पांच समयों में असंख्यातगुणित श्रेणिसे वृद्धिको प्राप्त हुए एकान्तानुवृद्धियोगसे बढ़नेवाले उक्त जीवके बहुत अवगाहनाका प्रसंग आता है । शंका- प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ हुए निगोद जविके जघन्य क्षेत्रका स्वामीपना क्यों नहीं देते ? समाधान नहीं, क्योंकि, उस समय आयतचतुरस्र क्षेत्रके आकारसे स्थित उक्त जीव में अवगाहनाका स्तोकपना बन नहीं सकता । शंका- ऋजुगति से उत्पन्न होनेके प्रथम समय में आयतचतुरस्र स्वरूपसे जीवप्रदेश स्थित रहते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? १ तर्हि ऋजुगत्यात्पन्नस्यैव कथमुक्तम् ? विग्रहगतौ योगवृद्धियुक्तत्वेन तदवगा वृद्धिसम्भवात् । गो. जी. (जी. प्र ) ९४. २ प्रतिषु ' चउरस्सं खेत्तागारेण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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