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________________ ४, २, ५, २०.] वेपणमहाहियारे वेयणखत्तविहाणे सामित्त [ ३५ ज्जंतुवदेसादो। बिदियसमयआहारय-विदियसमयतब्भवत्थरस जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ समचउरंससरूवेण जीवपदेसाणमवट्ठाणादो । बिदियसमए विक्खंभसमो आयामो जीवपदेसाणं होदि त्ति कुदो णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो। तदियसमयआहारयस्स तदियसमयतब्भवत्थस्स चेव जहण्णक्खेत्तसामित्तं किमढें दिज्जद ? ण एस दोसो, चउरंसखेत्तरस चत्तारि वि कोणे संकोडिय वट्ठलागोरण जीवपदेसाणं तत्थावट्ठाणदंसणादों । तत्थ बटुलागारेण जीवावट्ठाणं कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि जहण्णउववादजोग-जहण्णएगताणुवडिजोगेहि चेव तिसु वि समएसु पयट्टो त्ति जाणावणटुं जहण्णजोगिस्से त्ति भणिदं । तदियसमए अजहण्णाओ वि ओगाहणाओ अस्थि त्ति तप्पडिसेहट्ठ सव्वजहण्णियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्से त्ति भणिद । एवंविहविसेसणेहि विसेसि समाधान- वह आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है। शंका-द्वितीय समयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें वर्तमान जीवके जघन्य स्वामीपना क्यों नहीं देते ? समाधान नहीं, क्योंकि, उस समयमें भी जीवप्रदेश समचतुरस्र स्वरूपसे अवस्थित रहते हैं। शंका- द्वितीय समयमें जीवप्रदेशोंका विष्कम्भके समान आयाम होता है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान- वह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । शंका- तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ निगोद जीवके ही जघन्य क्षेत्रका स्वामीपना किसलिये देते हैं ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उस समयमें चतुरस्र क्षेत्रके चारों ही कोनोंको संकुचित करके जीवप्रदेशीका वर्तुल अर्थात् गोल आकारसे अवस्थान देखा जाता है। शंका- उस समय जीवप्रदेश वर्तुल आकारसे अवस्थित होते हैं, यह कैसे जाना जाता है। समाधान- वह इसी सूत्रसे जाना जाता है । उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर जघन्य उपपादयोग और जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगसे ही तीनों समयों में प्रवृत्त होता है, इस बातको जतलाने के लिये 'जघन्य योगवालके' ऐसा सूत्र में निर्देश किया है। तृतीय समयमें अजघन्य भी अवगाहनायें होती हैं, अतः उनका प्रतिषेध करनेके लिये 'शरीरकी सर्वजघन्य अवगाहनमें वर्तमान ' यह कहा है । इन विशेषणोंसे विशेषताको प्राप्त हुए सूक्ष्म निगोव , ननूत्पन्नतृतीयसमये एव सर्वजघन्याबगाहनं कथं सग्भवेत् इति चेत्- प्रथमसमये निगोदजीवशरीरस्यायतचतुरसत्वात् द्वितीयसमये समचतुरसत्वात् तृतीयसमये कोणापनयनेन वृत्तत्वात् तदेव [ तदेव ] तदवगाहनस्याल्पत्वसम्भवात् । गो. जी. (जी. प्र.) ९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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