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________________ १३६] छक्खंडागमे यणाखंड [४, २, ४, २३. सुगममेदं । अण्णदरस्स खवगस्स चरिमसमयसकसाइयस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥ २३॥ उवसामगपडिसेहफलो खवगस्से त्ति णिद्देसो । खीणकसायादिपडिसेहफलो सकसाइयस्से त्ति णिद्देसो । दुचरिमादिसकसाइयपैडिसेहट्टं चरिमसमएण सकसाई विसेसिदो । चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहणिया होदि ति उत्तं होदि। तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥२४॥ एदस्सत्थो णाणावरणअजहण्णसुत्तस्सेव परवेदव्वा । एवं सामित्तं सगंतोक्खित्तट्ठाण-संखा-जीवसमुदाहाराणिओगद्दारं समत्तं । अप्पाबहुए त्ति। तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगदाराणिजहण्णपदे उक्स्स पदे जहण्णुक्कस्सपदे ॥ २५ ॥ तिण्णि चेव अणिओगद्दाराणि एत्थ होति त्ति कधं णव्वदे १ जहण्णुक्कस्सपदेसु एग-दुसजोगेण तिण्णि भंगे मोत्तण एत्ते। अहियभंगुप्पत्तीए अणुवलंभादो। यह सूत्र सुगम है ? जो कोई क्षपक सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें स्थित है उसके मोहनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ २३ ॥ सूत्रमें क्षपक पदके निर्देशका प्रयोजन उपशामकका प्रतिषेध करना है। सकषाय पदके निर्देशका फल क्षीणकषाय आदिकोंका प्रतिषेध करना है। द्विचरम सकषायी आदिकोंका प्रतिषेध करनेके लिये सकषायीको 'चरम समय' विशेषणसे विशेषित किया गया है। अभिप्राय यह कि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित जीवके मोहनीयकी वेदना काल की अपेक्षा जघन्य होती है। उससे भिन्न अजघन्य वेदना होती है ॥ २४ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करनेवाले सूत्रके समान करना चाहिये । इस प्रकार स्थान, संख्या एवं जीवसमुदाहारसे गर्भित स्वामित्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अब अल्पबहुत्व अनुयोगद्धारका अधिकार है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैंजघन्य पदमें, उत्कृष्ट पदमें और जघन्य-उत्कृष्ट पदमें ॥ २५॥ शंका-इस अधिकारमें तीन ही अनुयोगद्वार हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- चूंकि जघन्य व उत्कृष्ट पदमें एक व दोके संयोगसे होनेवाले तीन भंगोंकी छोड़कर इनसे अधिक भंगोंकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती है, अतः इसीसे जाना जाता है कि उसमें तीन ही अनुयोगद्वार हैं। १ अ-आ-काप्रीतषु सकसाय ' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' चरिमसहुम' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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