SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ६, २२.] यणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [१३५ दुगुणवड्डी होदि । एत्तो प्पहुडि संखेज्जगुणवड्डी होदूण ताव गच्छदि जाव उपकस्ससंखेज्जगुणगारसरूवेण दोण्णं समयाणं पविट्ठ ति । पुणो एदस्सुवरि एगसमए वड्डिदे संखेज्जगुणवड्डी चेव, अद्धरूवेणब्भहियउक्कस्ससंखेज्जमेत्तगुणगारुवलंभादो । पुणो तदणंतरहेट्टिमसमयम्मि असंखेज्जगुणवड्डी होदि, तत्थ दोण समयाणं जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणगारुवलंभादो। एत्तो प्पहुडि असंखेज्जगुणवड्डीए ताव ओदारेदव्वं जाव समयाहियछम्मासो त्ति । पुणो एदेणाउएण सरिसं आउअबधेण विणा हिदसवट्ठसिद्धिदेवाउभं तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियछम्मासूणाणि गालिय द्विदं होदि । पुव्विल्लं मोत्तूण इमं घेतूण समउत्तरादिकमेण णिरंतरं वड्डाविय णेयव्वं जाव सव्वट्ठसिद्धिसमुप्पण्णदेवपढमसमओ त्ति । पुणो तेत्तीसाउअं बंधिय चरिमसमयमणुस्सो होदूण ट्ठिदसंजदम्मि अण्णमपुणरुत्तहाणं । मणुसदुचरिमसमयट्टिदसंजदम्मि अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं । एवमसंखेज्जगुणवढीए ताव ओदारेदव्वं जाव पुबकोडितिभागपढमसमयहिदसंजदो त्ति । एत्थ जीवसमुदाहारो जाणिय वत्तव्वो। सामित्तेण जहण्णपदे मोहणीयवेयणा कालदो जहणिया कस्स ? ॥ २२॥ होती है। यहांसे संख्यातगुणवृद्धि प्रारम्भ होकर तब तक जाती है जब तक कि उस्कृष्ट संख्यात गुणकार स्वरूपसे दो समय प्रविष्ट नहीं हो जाते। पश्चात् इसके ऊपर एक समयकी वृद्धि होनेपर संख्यातगुणवृद्धि ही रहती है, क्योंकि, वहां अर्ध रूपसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण गुणकार पाया जाता है। तत्पश्चात् उससे अनन्तर अधस्तन समयमें असंख्यातगु वृद्धि होती है, क्योंकि, वहां दो समयोंका जघन्य परीतासंख्यात गुणकार पाया जाता है। इसके आगे एक समय अधिक छह मास स्थिति तक असंख्यातगुणवृद्धिके द्वारा उतारना चाहिये । पश्चात् आयुबन्धसे रहित होकर स्थित सर्वार्थसिद्धिस्थ देवकी एक समय अधिक छह मासोंसे कम तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको गलाकर स्थित हुए जीवकी आयु इस आयुके सदृश होती है। पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसे ग्रहण करके एक एक समयकी अधिकताके क्रमसे निरन्तर बढ़ाकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुप देवकी उत्पत्तिके प्रथम समय तक ले जाना चाहिये । पुनः तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बांधकर मनुष्य भवके अन्तिम समयमें स्थित संयतके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। मनुष्य भवके द्विचरम समयमें स्थित संयतके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार पूर्वकोटित्रिभागके प्रथम समयमें स्थित संयत तक असंख्यातगुणवृद्धिके द्वारा उतारना चाहिये। यहां जीवसमुदाहारको जानकर कहना चाहिये। स्वामित्वसे जघन्य पदमें मोहनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य कसके होती है ? ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy