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________________ १२० छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ६, १५. दसणादो । एवं तिचरिमादिछदुमत्थेसु वि जहण्णसामित्ताभावो जाणिदूण वत्तव्यो । तम्हा खीणकसायचरिमसमए एगसमइयट्ठिदिणाणावरणकम्मक्खंधे जहण्णसामित्तं होदि त्ति घेत्तव्वं । तवदिरित्तमजहण्णा ॥ १६ ॥ __ एदम्हादो जं वदिरितं तमजहण्णा कालवेयणा होदि । तं च अणेयवियप्पं । तेण तब्मेदपरूवणादुवारेण तेसिं द्वाणाणं सामित्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा- एगो खवगो कम्माणि परिवाडीए खविय चरिमसमयखीणकसाई जादो। तस्स खाणकसायस्स चरिमसमए एगा हिदी एगसमयकालपमाणा अच्छिदा। तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा । एसो जहण्णकालसामी। पुणो अण्णेगो जीवो पुवविधाणेणागतूण दुचरिमसमयखीणकसाई जादो । सो अजहण्णकालसामी । एदं बिदियट्ठाण । पुणो अण्णो जीवो तिचरिमसमयखीणकसाई जादो । एसो वि अजहण्णकालसामी । तं तदियं हाणं । एवं चउत्थादिकमेण ओदारेदव्वं जाव खीणकसायद्धाए संखेज्जदिभागो त्ति । एदे णिरंतरहाण. सामिणो होति । समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां ज्ञानावरणीयकी दो समय प्रमाण स्थिति देखी जाती है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि छद्मस्थोंमें भी जघन्य घेदनाके स्वामित्वका अभाव जानकर कहना चाहिये। इसीलिये क्षीणकषायके अन्तिम समयमें शानावरण कर्मस्कन्धकी एक समयवाली स्थिति युक्त जीव जघन्य वेदनाका स्वामी होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। जघन्य वेदनासे भिन्न अजघन्य वेदना होती है ॥१६॥ इस जघन्य वेदनासे जो भिन्न है वह कालकी अपेक्षा अजघन्य वेदना है। वह अनेक भेद रूप है । इसलिये उसके भेदोंकी प्ररूपणा करते हुए उन स्थानोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- कोई एक क्षपक परिपाटीसे काँका क्षपण करके क्षीणकषायके अन्तिम समयवर्ती हुआ। उक्त जीवके क्षीणकषाय होनेके अन्तिम समयमें एक समय काल प्रमाण एक स्थिति रहती है। उसके ज्ञानावरणीयकी घेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है। यह जघन्य कालवेदनाका स्वामी है । पुनः एक दूसरा जीव पूर्व विधिसे आ करके क्षीणकषायके द्विचरम समयवर्ती हुआ। वह अजघन्य क लवेदनाका स्वामी है । यह द्वितीय स्थान है। पुनः एक और जीव क्षीणकषायके त्रिचरम समयवर्ती हुआ । यह भी अजघन्य कालवेदनाका स्वामी है। वह तीसरा स्थान है। इसी प्रकार चतुर्थ पंचम आदिके क्रमसे क्षीण कषायकाल के संख्यातवें भाग तक उतारना चाहिये । ये सब निरन्तर स्थानोंके स्वामी होते हैं। १ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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