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________________ १, २, ६, १५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [ ११९ जहण्णपदे इदि पुव्वुत्तअहियारसंभालणटुं णिदिट्ट । सेसकम्मपडिसेहट्ठो णाणावरणीयणिद्देसो । कालणिद्देसो खेत्तादिपडिसेहफलो । पुवाणुपुश्विकम' मोत्तूण पच्छाणुपुव्वीए जहण्णसामित्तपरूवणं किमहूँ कीरदे ? ण, तीहि वि आणुपुव्वीहि परूविदे दोसो पत्थि ति जाणावणटुं तहापरूवणाद।। अधवा, जहण्णट्ठाणादो उक्कस्सट्ठाणं संगहिदाससट्ठाणवियप्पत्तादो पहाणमिदि जाणावणटुं पुवमुक्कस्सट्ठाणपरूवणा कदा । सेसं सुगमं ? ___ अण्णदरस्स चरिमसमयछदुमत्थस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥ १५॥ ओगाहणादिभेदेहि जहण्णकालविरोहाभावपरूवणट्ठमण्णदरस्से त्ति भणिदं । छदुमं णाम आवरणं, तम्हि चिट्ठदि त्ति छदुमत्थो, तस्स छदुमत्थस्से त्ति णिद्देसेण केवलिपडिसेहो कदो। चरिमसमयछदुमत्थस्से ति णिद्देसो दुचरिमादिछदुमत्थपडिसेहफलो। खीणकसायदुचरिमसमए किण्ण जहण्णसामित्तं दिज्जदे ? ण, तत्थ णाणावरणीयस्स दुसमइयहिदि __ 'जघन्य पदमें ' यह निर्देश पूर्वोक्त अधिकारका स्मरण करानेके लिये कहा है। शेष कर्मों का प्रतिषेध करनेके लिये 'ज्ञानावरणीय' पदका निर्देश किया है। कालके निर्देशका प्रयोजन क्षेत्रादिकोंका प्रतिषेध करना है। शंका - पूर्वानुपूर्वीक्रमको छोड़कर पश्चादानुपूर्वीसे जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा किसलिये की जा रही है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तीनों ही आनुपूर्वियोंसे प्ररूपणा करनेपर कोई दोष नहीं होता, यह जतलाने के लिये यहां पश्चादानुपूर्वीक्रमसे प्ररूपणा की गई है। अथवा जघन्य स्थानकी अपेक्षा समस्त स्थानभेदोंका संग्रहकर्ता होनेसे उत्कृष्ट स्थान प्रधान है, यह ज्ञात करानेके लिये पहिले उत्कृष्ट स्थानकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है। जो कोई भी जीव छमस्थ अवस्थाके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके कालकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय कर्मकी जघन्य वेदना होती है ॥ १५॥ ___ अवगाहनादिक भेदोंसे जघन्य कालवेदनाके होनेमें कोई विरोध नहीं है, यह बतलाने के लिये सूत्रमें 'अन्यतर' पदका उपादान किया गया है। छद्म शब्दका अर्थ आवरण है, उसमें जो स्थित है वह छद्मस्थ कहा जाता है। उक्त छद्मस्थका निर्देश करनेसे केवलीका प्रतिषेध किया गया है। 'अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ' इस निर्देशका फल द्विचरम-त्रिचरम आदि समयों में वर्तमान छद्मस्थोंका प्रतिषेध करना है। शंका-क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें जघन्य वेदनाका स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? १ प्रतिषु 'कम्मं ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'ओगाहणभेदेहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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