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४, २, ५, १३. ]
arrमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं
[ २३
एत्थ उवसंहारो उच्चदे । तं जहा- एगरज्जुं ठविय सादिरेयअद्धट्टमरूवेहि गुणेदूण पुणो तिगुणिदविक्खंभेण | १५०० | तिगुणिदउस्सेहगुणिंदण | ७५० | गुणिदे णाणावरणीयस्स उक्कस्सखेत्तं होदि ।
तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा ॥ १३ ॥
उक्करसमहामच्छवखेत्ता दो वदिरित्तं खेत्तं तव्वदिरित्तं णाम । सा अणुक्कस्सा खेत्तवेयणा । सा च असंखेज्जवियप्पा | तिस्से सामी किरण परुविदा ? ण, उक्कस्तसामी चव अणुक्करसरस वि सामी होदि त्ति पुधसामित्तपरूवणाकरणादो, सेसवियप्पाणं पि एदम्हादो चैव सिद्धीदो च । तं जहा - मुहम्मि एगागासपदेसेणूणुक्कर से गाहणमहामच्छेण पुव्ववेरियदेवसंबंघेण लोगणालीए वायव्वदिसाए णिवदिय वेयणसमुग्वादेण पुव्वविक्खंभुस्सेहेहिंतो तिगुणविक्खंभुस्सेहे आवण्णेण मारणंतियसमुग्घादेण तिष्णि कंदयाणि कादूण सत्तमपुढविं पत्ते अणुक्करसुक्करसक्खेत्तं कदं । तेण एदस्स अणुक्क सुक्क सक्खेत्तस्स महामच्छो चैव सामी | पुणो मुहपदेसे दोहि आगासपदेसेहि ऊणओ महामच्छो वेयणसमुग्धादेण समुहदो होदूण तिण्णि विग्गहकंडयाणि काढूण मारणंतियसमुग्धादेण सत्तमपुढवि गदो बिदियअणुक्कस्सखेत्तस्स सामी होदि । पुणो तीहि आगासपदेसेहि परिहीणमुहो
यहां उपसंहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- - एक राजुको स्थापित करके साधिक साढ़े सात रूपसे गुणित करके पश्चात् तिगुणे उत्सेध ( २५० x ३ = ७५० ) से गुणिततिगुणे विष्कम्भ ( ५०० x ३ = १५०० ) के द्वारा गुणित करनेपर ज्ञानावरणीय का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है ।
महामत्स्यके उपर्युक्त उत्कृष्ट क्षेत्र से भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना है || १३ ||
उत्कृष्ट महामत्स्यक्षेत्र से भिन्न क्षेत्र तद्व्यतिरिक्त है । वह अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना है । वह असंख्यात विकल्प रूप है ।
शंका-उसके स्वामीकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ?
समाधान -- महीं, क्योंकि, उत्कृष्टका स्वामी ही चूंकि अनुत्कृष्टका भी स्वामी होता है, अतः उसके स्वामित्वकी पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई है, तथा शेष विकल्प भी इसीसे सिद्ध होते हैं । यथा— मुखमें एक प्रदेश से हीन उत्कृष्ट अवगाहनासे संयुक्त, पूर्ववैरी देवके सम्बन्ध से लोकनालीकी वायव्य दिशामें गिरकर वेदनासमुद्घात से पूर्व विष्कम्भ व उत्सेधकी अपेक्षा तिगुणे विष्कम्भ व उत्सेधको प्राप्त, तथा मारणान्तिकसमुद्घातसे तीन काण्डकोंको करके सातवीं पृथिवीको प्राप्त हुआ महामत्स्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट क्षेत्रको करता है । इस कारण इस अनुत्कृष्ट-उत्कृष्ट क्षेत्रका महामत्स्य ही स्वामी है ।
पुनः मुखप्रदेश में दो आकाशप्रदेशोंसे हीन महामत्स्य वेदनासमुद्घात से समुद्घातको प्राप्त होकर तीन विग्रहकाण्ड कोको करके मारणान्तिकसमुद्घातसे सातवीं पृथिवीको प्राप्त होता हुआ द्वितीय अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी होता है । फिर तीन
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