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________________ २२ ] raati aणाखंडे [ ४, २, ५, १२. उपज्जमानमहामच्छो वि तिगुणसरीरबाहल्लेण मारणंतियसमुग्धादं गच्छदिति । णच एदं जुज्जदे, सत्तमपुढवीणेरइएस असादबहुलेसु उप्पज्जमाण महा मच्छवेयणा-कसाए हिंतो सुमणिगोद उप्पज्जमानमहामच्छवेयण-कसायाणं सरिसत्ताणुववत्तदो । तद। एसो चेव अत्थो पहाणो त्ति घेत्तव्वो । ' लोगणालीए अंते सत्तमपुढवीए सेडिबद्धो अस्थि त्ति' देण सुत्ते णव्वदे, अण्णा तिण्णि विग्गहप्पसंगादो । से काले उप्पज्जिद्दिदि' त्ति किमङ्कं उच्चदे १ ण णेरइएसुप्पण्णपढमसमए उवसंहरिदपढमदंडस्स य उक्कस्सखेत्ताणुववत्तदो । एत्थ संदिट्ठीसादिरेयमद्धगुरज्जुपमाण के वि आइरिया -☀ एवं होदित्ति भणति । तं जहा- अवरदिसादो मारणंतियसमुग्धादं काढूण पुव्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति । पुणो विग्गहं करिय हेट्ठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्ग करिय वारुणदिसाए अद्धरज्जुपमाणं गंतूण अवहिद्वाणम्मि उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति । एदं ण घडदे, उववादट्ठाणं वोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जत उवदेसेण सिद्धत्ताद । । - भी विवक्षित शरीरकी अपेक्षा तिगुणे बाहल्यसे मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त होता है | परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योंकि, अत्यधिक असाताका अनुभव करनेवाले सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कषायकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कवाय सदृश नहीं हो सकती । इस कारण यही अर्थ प्रधान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । लोकनाली अन्तमें सातवीं पृथिवीका श्रेणिबद्ध है इस सूत्र से जाना जाता है, क्योंकि, इसके विना तीन विग्रहोंका प्रसंग आता है । 66 " शंका - अनन्तर कालमें उत्पन्न होगा, यह किसलिये कहते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नारकियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समय में प्रथम दण्डका उपसंहार हो जानेसे उसका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं बन सकता । यहां संदृष्टि - (मूल में देखिये) । साधिक साढ़े सात राजुका प्रमाण इस (निम्न) प्रकार होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । यथा - " पश्चिम दिशासे मारणान्तिकसमुद्घातको करके लोकनालीका भन्त प्राप्त होने तक पूर्वदिशामें आया । फिर विग्रह करके नीचे छह राजु मात्र जाकर पुनः विग्रह करके पश्चिम दिशामें आध राजु प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरक में उत्पन्न होने पर उसका उत्कृष्ट क्षेत्र होता I किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह उपपादस्थानका अतिक्रमण करके गमन नहीं होता' इस परम्परागत उपदेश से सिद्ध है । "" " १ अप्रतौ ' उप्पज्जदि', ताप्रतौ ' उप्पज्जहिदि ' इति पाठः । २ ताप्रती 'सादिरेयमय रज्जुपमाणं ' इति पाठ: । ३ प्रतिषु ' होंति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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