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________________ ४, ५, ६, १२.) वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त ।११५ णवंसयवेदाणं चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विराहादी) देवाणं उक्कस्साउअस्स मणुस्सा संजदा थलचारिणो बंधया, गैरइयाणं उक्कस्साउअस्स थलचारिमणुसमिच्छाइट्ठिणो जल-थलचारिसण्णिपंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्टिको वा बंधया त्ति जाणावणटुं जलचरस्स वा थलचरस्स वा त्ति भणिद। खगचारिणो देव-णेरइयाणं उक्कस्साउअं किण्ण बंधति ? ण, पक्खीणं सत्तमपुढविणेरइएसु अणुत्तरविमाणवासियदेवेसु वा उप्पज्जणं पडि सत्तीए अभावादो । ण विज्जाहराणं खगचरत्तमत्थि, विज्जाए विणा सहावदो चेव गगणगमणसमत्थेसु खगयरत्तप्पसिद्धीदो । दसणावजोगे वटुंताणं उक्कस्साउअबंधो ण होदि, किंतु णाणोवजोगे वटुंताणं एवे त्ति जाणावणटुं सागारणिद्देसो कदो। सुत्ताणमाउअस्स उक्कस्सबंधो ण होदि त्ति जाणावण8 जागारणिद्देसो कदो । जहा सेसकम्माणं उक्कस्सद्विदीओ उक्कस्ससंकिलेसेण वझंति, तहा आउअस्स उक्कस्सहिदी उक्कस्सविसोहीए उक्कस्ससंकिलेसेण वा ण वज्झदि त्ति जाणावणटुं तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स वा तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा त्ति भणिदं । कर सकते हैं, ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर छदसूत्रके साथ विरोध होता है। देवोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धक स्थलचारी संयत मनुष्य, तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धक स्थलचारी मिथ्यादृष्टि मनुष्य एवं जलचारी व स्थलचारी संझी पंचेद्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि हैं, इसके शापनार्थ "जलचरस्स वा थलचरस्स वा" ऐसा कहा है। शंका- आकाशचारी जीव देव व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको क्यों नहीं बांधते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पक्षियोंके सप्तम पृथिवीके नारकियों अथवा अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न होनेकी सामर्थ्य नहीं है । यदि कहा जाय कि विद्याधर भी तो आकाशचारी हैं, वे वहां उत्पन्न हो सकते हैं। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, विद्याकी सहायताके विना जो स्वभावसे ही आकाशगमनमें समर्थ हैं उनमें ही खगचरत्वकी प्रसिद्धि है। __ दर्शनोपयोगमें वर्तमान जीवोंके उत्कृष्ट आयुका बन्ध नहीं होता, किन्तु ज्ञानोपयोगमें वर्तमान जीवोंके ही उसका वन्ध होता है, यह जतलाने के लिये 'साकार'. पदका निर्देश किया है। सोये हुए जीवोंके उत्कृष्ट आयुका बन्ध नहीं होता, यह बतलानेके लिये जागार' पदका प्रयोग किया है। जिस प्रकार शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियां उत्कृष्ट संक्लेशसे बंधती हैं वैसे आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट विशुद्धि अथवा उत्कृष्ट संक्लेशसे नहीं बंधती, यह जलानेके लिये “ तप्पाओग्गसंकिलटुल्स था तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा" ऐसा कहा है। उत्कृष्ट आवाधाके बिना उकर चिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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