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________________ ११.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [, २, ५, १२. घंति ति: जाणावणहूँ सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्से ति भणिदं । देवाण उक्कस्साउवे पण्णारसकम्मभूमीसु चेव वज्झइ, गैरइयाणं उक्कस्साउअं पण्णारसकम्मभूमीसु कम्मभूमिपडिभागेसु च वज्झदि त्ति जाणावणहूँ कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिमागस्स वा त्ति परविदं । देव-णेरइयाणं उक्कस्साउअमसंखेज्जवासाउवतिरिक्खमणुस्सा ण बंधति, संखेज्जवासाउवा चेव बंधति त्ति जाणावणटुं संखेज्जवासाउअस्से ति परूविदं । देव-णेरइयाणं उक्कस्साउअबंधस्स तीहि वेदेहि विरोहो पत्थि त्ति जाणावणटुं इत्थिवदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णवंसयवेदस्स वा त्ति भणिदं । . एत्थ भाववेदस्स गहणमण्णहा दवित्थिवेदेण वि णेरइयाणमुक्कस्साउअस्स बंधप्पसंगादो । ण च तेण सह तस्स बंधो, आ पंचमी ति सीहा इत्थीओ जंति' छट्टिपुढवि ति. एदेण सुत्तेण सह विरोहादो । ण च देवाणं उक्कस्साउअं दवित्थिवेदेण सह वज्झइ, णियमा णिग्गंथलिंगेणे ति सुत्तेण सह विरोहादो ण च दव्वित्थीण णिग्गंथत्तमत्थि, चेलादिपरिच्चाएण विणा तासिं भावणिग्गंथत्ताभावादो। ण च दवित्थि है, यह जतलानेके लिये “ सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदस्त" यह कहा है। देवोंकी उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों में ही बंधती है तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों और कर्मभूमिप्रतिभागोंमें भी बांधी जाती है, यह बतलानाके लिये "कम्मभूमियस्स कम्मभूमिपडिभागस्स वा " ऐसा कहा है। देवा व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच या मनुष्य नहीं बांधते हैं, किन्तु संख्यातवर्षायुष्क ही बांधते हैं, यह जतलानेके लिये 'संखेज्जवासाउअस्स' ऐसा निर्देश किया है। देवों व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका तीनों वेदोंके साथ विरोध नहीं है, यह जतलानके लिये “इत्थिवेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णqसयवेदस्स वा" ऐसा कहा है। यहां भाववेदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, द्रव्यवेदका ग्रहण करनेपर द्रव्य स्त्रीवेदके साथ भी नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका प्रसंग आता है । परन्तु उसके साथ नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुका बन्ध होता नहीं है, क्योंकि "पांचवीं पृथिवी तक सिंह और छठी पृथिवी तक स्त्रियां जाती हैं" इस सूत्रके साथ विरोध आता है। देवोंकी भी उत्कृष्ट आयु द्रव्य स्त्रीवेदके साथ नहीं बंधती, क्योंकि, अन्यथा "अच्युत कल्पसे ऊपर] नियमतः निर्ग्रन्थ लिंगसे ही उत्पन्न होते हैं" इस सूत्रके साथ विरोध होता है । और द्रव्य स्त्रियोंके निर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है, क्योंकि, वस्त्रादिपरित्यागके विना उनके भाव निर्ग्रन्थताका अभाव है। द्रव्य स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदी वस्त्रादिकका त्याग करके निर्ग्रन्थ लिंग धारण ......................... २ मूलाचार १२.११३. १ अ-आ-काप्रतिषु 'आ पंचमा ति सीहा इत्थीओ जाति छट्ठी' इति पाठः। . मूलाचार १२-१३४., ति.प.८,५५९-६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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