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________________ ४, २, ६, १८६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३२३ - तदियाए हिदीए जीवा विसेसाहिया ॥ १८४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? एगविसेसमेत्तेण । एवं उवरिं पि एगेगजीवविसेसमहियं कादूण णेदव्वं । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव सागरोवमसदपुधत्वं ॥१८५॥ ___ सागरोवमसदपुधत्तवयणेण चदुण्णं पि जवमज्झाणं हेट्ठिमअद्धाणपमाणं जाणाविदं । एत्य विसेसो अणवट्टिदो दट्टब्बो, गुणहाणि पडि दुगुणक्कमेण विसेसाणं वडिदंसणादो। तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सागरोवमसदपुत्त्रं ॥१८६॥ एदेण सागरोवमसदपुधत्तवयणेण चदुण्णं जवमज्झाणं उवरिमअद्धाणपमाणं आणाविदं । जवमज्झउवरिमगुणहाणीयो वि हेट्टिमगुणहाणीहि अद्धाणपमाणेण समाणाओ। जीवविसेसा पुण अणवहिदा; अद्धद्धक्कमेण गुणहाणि पडि तेसिं गमणुवलंभादो। समाधान—चूँकि इसके विना यवमध्यपना बनता नहीं है, इसलिये उनका दुगुणत्व निश्चित होता है। तृतीय स्थितिमें जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८४ ॥ .. कितने प्रमाणसे वे भधिक हैं ? वे एक विशेष मात्रसे अधिक हैं । इसी प्रकार आगे भी एक एक जीवविशेषको अधिक करके ले जाना चाहिये। ___ इस प्रकार शतपृथक्त्व सागरोपमों तक विशेष अधिक विशेष अधिक ही हैं॥१८५॥ 'शतपृथक्त्व सागरोपम' के कहनेसे चारों ही यवमध्योंके अधस्तन अध्यानका प्रमाण बतलाया गया है। यहां विशेषको अनवस्थित समझना चाहिये, क्योंकि, प्रत्येक गुणहानिके प्रति दुगुणे क्रमसे विशेषोंकी वृद्धि देखी जाती है। उसके आगे शतपृथक्त्व सागरोपमों तक विशेष हीन विशेष हीन हैं ॥ १८६ ॥ इस ‘सागरोपमशतपृथक्त्व' के कहनेसे चारों यवमध्योंके उपरिम अध्वानका प्रमाण बतलाया गया है। यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानियां भी अध्वानप्रमाणकी अपेक्षा नीचेकी गुणहानियोंके समान हैं । परन्तु जीवविशेष अनवस्थित हैं, क्योंकि, प्रत्येक गुणहानिके प्रति उनकी आधे आधे क्रमसे प्रवृत्ति देखी जाती है। wanaman ....... .......... १ ततो द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः । ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितो विशेषाधिकाः । एवं तावद्विशेषाधिका वक्तव्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रान्तानि भवन्ति । ततः परं विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वतन्या यावद्विशेषहानावपि 'उदहिसयपुहुत्तं त्ति' प्रभूतानि सागरोपमशतानि भवन्ति । 'मो' इति पादपूरणे। पृथक्त्वशब्दोऽत्र बहुत्ववाची। यदाह चूर्णिकृत्-पृहुत्तसहो बहुत्तवाचीति ।' इति । क. प्र. (म. टी.) १,९३.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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