SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १८३. सादस्स चउहाणाणुभागबंधपाओग्गष्टिदीयो सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताओ । ताओ . बुद्धीए पुध हविय, तिहाणाणुभागबंधपाओग्गाओ सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताओ, एदाओ वि पुध हविय; एवमसादस्स बिट्ठाणतिहाणाणुभागबंधपाओग्गसागरोक्मसदपुधत्तमत्ताहिदीयो च पुध हविय, तत्थ एदसिं चदुण्णं पि पंतीणं णाणावरणीयस्स जहण्णियाए हिदीए जीवा थोवा; तसरासिस्स संखेजदिभागमेक्केक्कट्रिदिपंतिअब्भतरे हिदजीवरासिं तिणिगुणहाणिगुणिदपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे देि जहण्णहिदिजीवाणं पमाणुवलंभादो। बिदियाए ट्ठिदीए जीवा विसेसाहिया ॥ १८३ ॥ कुदो ? एगगुणहाणियद्धाणमसंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्तं विरलिय जहण्णहिदिजीवे समखंडं करिय विरलणरूवं पडि दादूण तत्थ एगखंडमेत्तेण अहियत्तुवलंभादो । एगगुणअद्धाणं चेव भागहारो होदि ति कधं णव्वदे ? पक्खेवाणं दुगुणत्तुवलंभादो। तं पि कुदो ? अण्णहा जवमज्झभावाणुववत्तीदो। ___ साता वेदनीयकी चतुःस्थानानुभागवन्धके योग्य शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियां हैं । उनको बुद्धिसे पृथक् स्थापित करके उसीकी त्रिस्थानानुभागबन्धके योग्य जो शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियां हैं इनको भी पृथक् स्थापित करके, इसी प्रकार असाता वेदनीयकी द्विस्थान व त्रिस्थान रूप अनुभागबन्धके योग्य शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियोंको प्रथक स्थापित करके उनमें इन चारों ही कमाकी पंक्तियोंके शानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीव स्तोक हैं, क्योंकि, अस राशिके संख्यातवें भाग एक एक पंक्तिके भीतर स्थित जीवराशिमें तीन गुणहानिगुणित पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जघन्य स्थितिके जीवोंका प्रमाण उपलब्ध होता है। . द्वितीय स्थितिके जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८३ ॥ इसका कारण यह है कि पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण एकगुणहानि- अध्यानका विरलन करके जघन्य स्थितिके जीवोंको समखण्ड करके प्रत्येक विरलन रूपके ऊपर देकर उनसे एक खण्डके प्रमाणसे उनमें अधिकता पायी जाती है। शंका-एकगुणहानिअध्वान ही भागहार होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--प्रक्षेपोंमें दुगुणताकी उपलब्धि होनेसे जाना जाता है कि एक गुणहानिअध्वान ही भागहार होता है। _शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? जीवा विसेसहीणा उदहिसयपुहत्त मो जाव ॥ एवं तिहाणकरा बिट्ठाणकरा य आ सुभुक्कोसा। असभाण बिट्टाणे ति-च उट्ठाणे य उक्कोसा ॥ क. प्र. १,९३-९४.। परावर्तमानानां शुभप्रकृतीनां चतुस्थानगतरसबन्धका सन्तो ज्ञानावरणीयादीनां ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यस्थिती बन्धकस्वेन वर्तमाना जीवा स्तोकाः (म. टी.)। १अप्रतो' पि कम्माण पंतीणं' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'जीवरासी.. तिण्णि', आप्रती 'जीवरासितिण्णि' इति पाठः। ... . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy