SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ६, ५०.) यणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [१५७ सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४९॥ कुदो ? पलिदोवमस्स संखेज्जदिभाममेत्तअसण्णिपंचिंदियट्टिदिबंधट्ठाणेहि अंतोकोडाकोडिमेत्तसणिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणेसु भागे हिदेसु संखेज्जरूवोवलंभादो । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥५०॥ कारणं सुगमं । संपहि जेणेसो अव्वोगाढअप्पाबहुगदंडओ देसामासिओ तेणेत्य अंतब्भूदं चउवियप्पमप्पाबहुगं भणिस्सामो । तं जहा - एत्थ अप्पाबहुगं दुविहं मूलपयडिअप्पाबहुगं अव्वोगाढअप्पाबहुगं चेदि । तत्थ अव्वोगाढअप्पाबहुगं दुविहं सत्थाण-परत्थाणभेदेण । तत्थ सत्थाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणों। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सुहुमेइंदियपज्जत-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं पि वत्तव्वं । बेइंदियअपज्जत्तयस्स सव्वत्थोवो द्विदिबंधट्ठाणविसेसो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। उनसे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ४९ ॥ इसका कारण यह है कि पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र असंही पंचेन्द्रियके स्थितिबन्धस्थानोंका अन्तःकोडाकोड़ि मात्र संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानों में भाग देनेपर संख्यात रूप प्राप्त होते हैं। उनसे उसीके पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ५० ॥ इसका कारण सुगम है। अब चूंकि यह अव्वोगाढअल्पबहुत्वदण्डक देशामर्शक है, अतः इसमें अन्तर्भूत चार प्रकारके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है- यहां अल्पबहुत्व मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व और अव्वोगाढअल्पबहुत्वके भेदसे दो प्रकार है। इनमें अव्योगाढअल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकार है। उनमें स्वस्थानअल्पबहुत्वको कहते हैं। यथा- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थान विशेष सबसे स्तोक है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष भाधिक हैं। उनसे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके भी कहना चाहिये । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष सबसे स्तोक है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ............. , आपतौ ' असंखेज्जगुणाणि ' इति पाठः। २ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' असंखेजगुणो' इति पाठ। Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy