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________________ tej छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,५५, ५०० एवं बेइंदियपज्जत्त-तेइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च वत्तव्वं । सणिपंचिंदियअपज्जतैयस्स सव्वत्थोवो जहण्णओ हिदिबंधो। विदिबंधट्ठाणविसेमो संखेज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधी विसेसाहिओ । एवं सण्णिपज्जत्तयस्स वि वत्तव्यं । एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।। परत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्साम।। तं जहा- सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिषधट्ठाणविसेसो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । सुहु. मेइंदियपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि विसेसाहियाणि एगरूवेण । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। विदिबंधाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बेइंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो। द्विदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्लेव पज्जतयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदि. बंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणवितेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्त तथा श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंही पंचन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके भी कहना चाहिये । संक्षी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । उससे स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार संझी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके भी कहना चाहिये । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। परस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं। यथा- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थिति वेशेष सबसे स्तोक है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष भधिक हैं । उनसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उनसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक है। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीके पर्याप्तका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा हैं। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे ताप्रती [अ] संखेज्जगुणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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