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________________ [ १२३ ५, २, ६, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं गारसलागमेत्तपढमवग्गमूलाणि वड्डिदूण बंधमाणस्स वि असंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं व होदि । कुदो १ पलिदोवमवग्गमूलेण धुवट्ठिदीए ओवट्टिदाए धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागमेत्तपलिदोवमपढमवग्गमूलाणमागमुवलंभादो । एवं बादरधुवद्विदीए भागहारो पलिदोवमबिदियवग्गमूलं होदूण, पुणो कमेण हाइदूण तदियवग्गमूलं होदूण, पुणो आवलियं होदूर्ण जाव जहण्णपरित्तासंखेज्ज पत्तो त्ति ताव वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डिदे वि असंखेज्जभागवडी चेव । कुदो १ जहण्णपरित्तासंखेज्जेण बादरेइंदियधुवहिदीए ओवट्टिदाए वडिरूवाणमुवलंभादो। बादरेइंदियवीचारट्ठाणाणि पेक्खिदूण एदे वडिदसमया असंखेज्जगुणा होति, पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागत्तादो, आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पलिदोवमे भागे हिंदे बादरेइंदियवीचारहाणाणं पमाणुप्पत्तीदो, बादरेइंदियउक्कस्सहिदीए उवरि समउत्तरादिकमेण बंधो ण लब्भदि त्ति। संपहि द्विदिघादमस्सिदूण उवरिमट्ठाणाणमुप्पत्ती परूवेदव्वा । तं जहाबादरेइंदियउक्कस्सहिदीदो समउत्तरं घादिदूण इविदे असंखेज्जभागवडी होदि । उवरिमहिदिं पुणो घादिदूण बादरेइंदियउक्कस्सद्विदिबंधादो दुसमउत्तरं कादण विदे तमण्णमपुणरुत्तमसंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं होदि । तिसमउत्तरं कादूण दृविदे अण्णमपुणरुत्त गुणकारभूत शलाकाओं प्रमाण पल्योपम-प्रथमवर्गमूलोकी वृद्धि होकर बांधनेवालेके भी असंख्यातभागवृद्धि का ही स्थान होता है, क्योंकि, पल्योपमके वर्गमूलका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर ध्रुवस्थितिकी पल्योपमशलाकाओं प्रमाण पल्योपम-प्रथम वर्गमूलोंकी उपलब्धि पायी जाती है । इस प्रकार बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिका भागहार पल्योपमका द्वितीय वर्गमूल होकर, फिर क्रमसे हीन होकर तृतीय वर्गमूल होकर, फिर आवली होकर, जब तक जघन्य परीतासंख्यात प्राप्त नहीं होता तब तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार भागहारके बढ़ने पर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातका बादर एकेन्द्रियकी धुवस्थितिमें भाग देने पर वृद्धिप्राप्त अंक उपलब्ध होते हैं। ये वृद्धिंगत समय बादर एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे पल्योपमके संख्यातचे भाग प्रमाण हैं, आवलीके असंख्यातवें भागका पल्योपममें भाग देनेपर बादर एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंका प्रमाण उत्पन्न होता है तथा बादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिके ऊपर एक समयादिककी अधिकताके क्रमसे बन्ध नहीं पाया जाता। अब स्थितिघातका आश्रय करके उपरिम स्थानोंकी उत्पत्तिकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-बादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति से एक-एक समय घात करके स्थापित करनेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। पश्चात् उपरिम स्थितिको फिरसे घातकर बादर एकेन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे दो दो समय अधिक करके स्थापित करने पर बह दूसरा अपुनरुक्त असंण्यातभागवृद्धिका स्थान होता है। तीन-तीन समय अधिक करके स्थापित करनेपर अन्य भपुनरुक स्थान होता है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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