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________________ १५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,२६, १६. तसो तिगुणेदवो । १।३। एदं गुणगारो होदूण ताव गच्छदि जाव पुविल्लंसो रूवूणधुवद्विदीए गुणेदूण तिसु रूवेसु पक्खित्तो त्ति । पुणो एत्थ वि पुव्विल्लंसं पुण्णधुवहिदीए गुणिय तिसु रुवेसु पक्खित्ते चत्तरिगुणगाररूवाणि होति । तेहि धुवहिदीए गुणिदाए चदुगुणवड्डी होदि । १६ । एवं छेद-समगुणगारकमेण बंध-संते अस्सिदूण णेदवं जाव सण्णिपंचिंदियधुवहिदि ति । तिस्से पमाणं संदिट्ठीए अट्ठावीस । २८ । पुणो एदिस्से उवरि समउत्तरं पबद्धे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एदस्स गुणगारपमाणमेदं|७|| एदेण धुवट्टिदीए गुणिदाए सण्णिपंचिंदियस्स समयाहियधुवट्ठिदिट्ठाणं होदि | २९ । एवं छेद-समगुणगारसरूवेण णेदव्वं जाव बादरधुवहिदीए उक्कस्सगुणगारसलागाओ रूवूणाओ पविट्ठाओ त्ति । एदमण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । २२८ । पुणो एदिस्से उवरि समउत्तरं वढिदूण बद्धे' अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एदस्स छेदगुणगारो । तं जहा- बादरधुवहिदिमेत्तसमएसु वड्डिदेसु जदि एगा गुणगारसलागा लन्भदि तो एगसमए वड्डिदे किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छमावट्टिय लद्धे करना चाहिये ! x ३। इस प्रकार छेदगुणकार होकर तब तक जाता है जब तक कि पूर्वका अंश एक कम ध्रुवस्थितिसे गुणित होकर तीन रूपोंमें प्रक्षिप्त नहीं हो जाता। फिर यहां भी पूर्वके अंशको पूर्ण ध्रुवस्थितिसे गुणित कर तीन रूपोंमें मिला देनेपर गुणकार चार अंक होते हैं। उससे ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर चौगुणी वृद्धि होती है-४४४ = १६। इस प्रकार छेदगुणकार और समगुणकारके क्रमसे बन्ध व सत्त्वका आश्रय करके संशी पंचेन्द्रिय जीवकी ध्रुवस्थिति तक ले जाना चाहिये । उसका प्रमाण संदृष्टिमें अट्ठाईस २८ है। फिर इसके ऊपर एक समयकी वृद्धि होनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। उसके गुणकारका प्रमाण यह है-७१। इससे धुवस्थितिको गुणित करनेपर संशी पंचेन्द्रिय जीवकी एक समयसे अधिक धुवस्थितिका स्थान होता है - x २९ = २९ । इस प्रकार छेदगुणकार और समगुणकार स्वरूपसे बादर धुवस्थितिमें एक कम उत्कृष्ट गुणकारशलाकाओंके प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये । यह अन्य अपुनरुक्तस्थान होता है २२८ । इसके ऊपर एक समय अधिक बढ़ करके बन्ध होनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इसका छेदगुणकार होता है । यथा- बादर ध्रुवस्थिति प्रमाण समयोंके बढ़नेपर यदि एक गुणकारशलाका प्राप्त होती है तो एक समयके बढ़नेपर कितनी गुणकारशलाकाएं प्राप्त होगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छामें प्रमाण राशिका भाग १ प्रतिषु ' लढे ', मप्रतौ ' बंधे ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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