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________________ ............................................... ४, २, ६, १८०. ] वेयणमहाहियारे वेषणकालविहाणे डिदिबंधष्झवसाणपरूवणा (३१९ बंधपाओग्गा गाणावरणीयस्से सत्वजहण्णहिदी सा. सत्याणजहण्णा णाम । तिस्से बंधया त्ति उत्तं होदि .. ... . असादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णअणुक्कस्सियं द्विदि बंधंति ॥ १७९ ॥ कुदो ? ण ताव उक्कस्सियं हिदि बंधंति, उक्कस्ससंकिलेसाभावादो । ण जहणियं पि, अइविसुद्धपरिणामाभावादो । तम्हा णाणावरणीयस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सियं चैव हिदि असादतिट्ठाणबंधा जीवा बंधंति त्ति सिद्धं । . . असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चेव उक्कस्सियं टिदिं बंधंति ॥ १८० ॥ जेण असादस्स चउट्ठाणबंधया जीवा तिव्वसंकिलेसा तेण असादस्स उक्कस्सियं हिदि बंधंति । एत्थ चेव सद्दो अवि-सदृढे वट्टदे। तेण णाणावरणादीणं पि उक्कस्सियं द्विदिं बंधति त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा तदुक्कस्सहिदीणं बंधकारणाभावप्पसंगादो । एवं समाधान-असातावेदनीयके साथ बन्धके योग्य जो ज्ञानावरणीयकी सबसे जघन्य स्थिति है वह स्वस्थान जघन्य स्थिति कही जाती है। उक्त जीव उसी स्थितिके बन्धक हैं, यह अभिप्राय है। असातावेदनीयके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं ॥ १७९ ॥ कारण यह कि वे उत्कृष्ट स्थितिको तो बांधते नहीं हैं, क्योंकि, उनके उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है। न जघन्य स्थितिको भी बांधते हैं. क्योंकि, उनके अत्यन्त विशुद्ध परिणामोंका अभाव है। इस कारण असाताके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको ही बांधते हैं, यह सिद्ध है। असाता वेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव असातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं ॥ १८०॥ चूँकि असाता वेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव तीव्र संक्लेशसे संयुक्त होते हैं, अतएव वे असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं। यहाँ सूत्रमें प्रयुक्त 'चेव' शब्द 'अपि' शब्दके अर्थ में वर्तमान है। इसीलिये वे ज्ञानावरणादिकोंकी भी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, इसके विना उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणोंके अभाषका प्रसंग आवेगा । इस प्रकार साता व असाता वेदनीयके १ये पुनः परावर्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानमतस्य रसस्य बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनामजघन्यो स्थिति बन्नन्ति । क. प्र. (म. टी.)१,९२.। २ तथा ये परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रसं नमन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनामुत्कृष्टो स्थिति निवर्तयन्ति । क.प्र. (म.टी.) १,९२। . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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