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________________ २४६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १०५. तेत्तीस सागरोवमाणि उक्कस्सिया हिदी च होदि त्ति जाणावणङ्कं तदुत्तीए । देवाउअं पडुच्च सम्मादिट्ठीणं वा त्ति भणिदं, संजदेसु सम्मादिट्ठीसु पुव्वकोडितिभागपढमसमयद्विदीसु देवाउअस्स केसु वि तेत्तीससागरोवमपमाणस्स बंधुवलंभादो । णिरयाउअं पडुच्च मिच्छाइट्ठीणं वा त्ति वुत्तं, पुव्वकोडितिभागपढमसमए वह्माणमिच्छाइट्ठी तेत्तीससागरोवममेत्तणिरयाउअस्स बंधुवलंभादो । सेसं जहा णाणावरणीयस्स परुविदं तहा परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । अंतोखित्तपवणा-पमाणमणंतरोवणिधं णामा - गोदाणमुत्तरसुत्तेण भणदि — पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्टीणं पज्जत्तयाणं णामागोदाणं वेवास सहसाणि आबाधं मोतृण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण वीसं सागरोवमकोडीयो त्ति ।। १०५ ।। णिसेगभागहारो सव्वकम्मेसु सरिसो, सव्वत्थ गुणंहाणीणं सरिसत्तुवलंभादो । गोवुच्छविसेसा ण सव्वगुणहाणीसु सरिसा, किंतु आदिगुणहाणिप्पहुडि अद्धद्धगया, लिये उक्त प्ररूपणा की जा रही है । देवायुकी अपेक्षा करके ' सम्मादिट्ठीगं वा' ऐसा कहा गया है, क्योंकि, पूर्व कोंटिके त्रिभागके प्रथम समय में स्थित किन्हीं सभ्यग्दृष्टि संयत जीवोंमें तेतीस सांगरोपम प्रमाण देवायुका बन्ध पाया जाता है । नारकायुकी अपेक्षा करके 'मिच्छा हट्टीणं वा' ऐसा कहा गया है, क्योंकि, पूर्वकोटिके त्रिभाग के प्रथम समय में वर्तमान किन्हीं मिथ्यादृष्टि जीवों में तेतीस सागरोपम प्रमाण नारकायुका बन्ध पाया जाता है । शेष प्ररूपणा जैसे शानावरणीयके विषय में की गई है, वैसे ही यहां करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । अब आगे सूत्रसे प्ररूपणा व प्रमाण अनुयोगद्वारोंसे गर्भित नाम व गोत्रकी अनन्तरोपनिधाको कहते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके नाम व गोत्र कर्मकी दो हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशपिण्ड प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समय में निषिक्त है, वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमों तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ।। १०५ ॥ निषेकभागहार सब कर्मोंमें समान है, क्योंकि सर्वत्र गुणहानियोंकी सदृशता देखी जाती है । गोपुच्छ विशेष सब गुणहानियोंमें सदृश नहीं है, किन्तु प्रथम गुणहानिसे लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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