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________________ ४, २, ६, १०६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा २४७ गुणहाणीसु अवहिदासु गोवुच्छविसेसाणमवट्ठाणावरोहादो । सेसं जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा पख्वेदव्वं । . संपहि सण्णीसु पजत्तेसु सव्वकम्माणं पदेसणिसेगस्स अणंतरोवणिधं परूविय सण्णिअपज्जत्ताणं तप्परूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि - पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्टीणमपजत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणमंतोमुहुत्तमाबाधं मोतूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसितं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण अंतोकोडाकोडीयो त्ति ॥ १०६ ॥ एत्थ आउअं किमटुं एदेहि सह ण भणिदं ? ण एस दोसो, एदेसि हिदिबंधेण समाणाउअहिदिबंधाभावेण सह वोत्तुमसत्तीदो । णामा-गोदाणमंतोकोडाकोडीदो चदुण्णं कम्माणमतोकोडाकोडी दुभागभहिया । मोहस्स अंतोकोडाकोडी चदुण्णं कम्माणमंतो उत्तरोत्तर आधे आधे होते गये हैं, क्योंकि, गुणहानियोंके अवस्थित होनेपर गोपुच्छविशेषोंके अवस्थानका विरोध हैं । शेष प्ररूपणा जैसे ज्ञानावरणीयके सम्बन्धमें की गई है वैसे ही करना चाहिये। अब संशी पर्याप्तक जीवोंके सब कर्मों के प्रदेशनिषेककी अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करके संज्ञी अपर्याप्तक जीवोंके उसकी प्ररूपणा करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तक जीवोंके आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशपिण्ड प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समयमें निषिक्त है वह विशेषहीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समयमें निषिक्त है वह विशेषहीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०६॥ शंका-यहां इनके साथ आयु कर्मका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इनके स्थितिबन्धके समान आयु कर्मका स्थितिबन्ध नहीं होता; अतएव उनके साथ आयु कर्मका कहना शक्य नहीं है। शंका-नाम व गोत्रके अन्तः कोड़ाकोडि मात्र स्थितिबन्धकी अपेक्षा चार कमौका स्थितिबन्ध द्वितीय भागसे अधिक अन्तः कोड़ाकोडि प्रमाण होता है । मोहनीय कर्मकी अन्तःकोड़ाकोड़ि चार काँकी अन्तःकोड़ाकोड़िकी अपेक्षा एक तृतीय भाग सहित दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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