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________________ २४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १०७. कोडाकोडीहितो सतिभाग-दोस्वगुणा ति । सेसकम्महिदी विसरिसा ति । तेण सेसकम्माणं पि एगजोगो मा होदु त्ति वुत्ते ण, अंतोकोडाकोडित्तणेण तेसिं हिदीणं समाणत्तुवलंभादो। अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तूणेत्ति भणिदे पढमसमयप्पहुडि संखेजावलियाओ वजिदूण उवरि णिसेयरचणं करेदि त्ति घेत्तव्वं । सेसं सण्णिपंचिंदियपजत्तणाणावरणीयस्स जहा वुत्तं तहा वत्तन्वं, अविसेसादो। - पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं चरिंदिय-तीइंदिय-बीइंदियाणं बादरेइंदियअपज्जत्तयाणं सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणमाउअस्स अंतो मुहुत्तमाबाधं मोतूण जाव पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसगं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेंसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण पुवकोडीयो त्ति ॥ १०७ ॥ एदे सत्त अपजत्तजीवसमाससख्वेण परिणयजीवा सुहुमेइंदियपज्जत्तजीवा च आउअस्स सवुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणा पुन्वकोडिं चेव जेण बंधंति तेण पुवकोडिमेत्ता चेव पदेसरूपों (२३) से गुणित है। शेष कर्मोकी स्थिति विसदृश है। इसलिये शेष कर्मोंका भी एक योग नहीं होना चाहिये? । समाधान नहीं, क्योंकि, अन्तःकोड़ाकोडि स्वरूपसे उनकी स्थितियों के समानता पायी जाती है। 'अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तूण' ऐसा कहनेपर प्रथम समयसे लेकर संख्यात आवलियोंको छोड़कर इसके आगे निषेकरचनाको करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। शेष कथन जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके ज्ञानावरणीयके विषयमें किया है वैसा ही इसके भी करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व बादर एकेन्द्रिय अपर्यातक तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त है वह विशेष हीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे पूर्वकोठि तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०७॥ अपर्याप्त जीवसमास स्वरूपसे परिणत ये सात जीव तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हुए चूँकि पूर्वकोटि प्रमाण ही बाँधते है, अतएव पूर्वकोटि मात्र ही प्रदेशरचना कही गई है । पूर्वकोटिमेंसे एक अंक कम इत्यादि क्रमसे १ काप्रती · दीरूव' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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