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________________ ४, २, ६, १०३.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूषणा [ २४३ लम्भदि तो सत्तरि-तीस-वीससागरोवमकोडाकोडीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जहाकमेण सत्त तिण्णि वेण्णि वाससहस्साणि आबाहाओ होति । मोहणीयस्स आबाधा एसा ७००० । णाणावरणादीणं चदुण्णं कम्माणमाबाहा एत्तिया होदि ३०००। णामागोदाणमाबाहा एत्तिया होदि २००० । एदेण अत्थपदेण सेसउत्तरपयडीणं पि आबाहापरूपणा कायव्वा । एवं कदे सोलसण्णं कसायाणं चत्तारि वाससहस्साणि आबाधा होदि । एवं सेसउत्तरपयडीणं पि जाणिदृण वत्तब्वं । एवमेइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असणिपंचिंदिएसु वि आबाहापरूवणा सग-सगहिदीसु कायव्वा । णवरि आउअस्स आवाधाणियमो णत्थि, पुन्वकोडितिभागमाबाई काऊण खुद्दाभवगहणमेत्तहिदीए वि बंधुवलंभादो असंखेवद्धाबाहाए वि तेत्तीससागरोवममेत्तहिदिबंधुवलंभादो। सेसं णाणावरणादिचदुण्णं कम्माणं जहा परूविदं तहा णिस्सेसं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो। एत्थ मोहसब्वपयडीणं पदेसापिंडं घेत्तूण किमणंतरोवणिधा वुच्चदे, आहो पुध-पुधपयडीणं णिसेगस्स अणंतरोवणिधा वुचदि ति ? ण ताव पढमवियप्पो जुजदे, चालीस यदि दस कोडाकोडि सांगरोपम प्रमाण स्थितिकी एक हजार वर्ष प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो सत्तर, तीस और बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमान स्थितियोंकी आबाधा कितनी होगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर क्रमशः उनकी सात, तीन और दो हजार वर्ष प्रमाण आबाधा होती है । मोहनीय कर्मकी आबाधा ७००० वर्ष प्रमाण है । ज्ञानावरणादिक चार कम की आबाधा इतनी होती है३००० वर्ष । नाम व गोत्रकी आबाधा इतनी होती है-२००० वर्ष । इस अर्थपदसे शेष उत्तर प्रकृतियोंकी भी आबाधाकी प्ररूपणा करना चाहिये। ऐसा करनेपर सोलह कषायोंकी चार हजार वर्ष प्रमाण आबाधा होती है। इसी प्रकार शेष उत्तर प्रकृतियोंके विषय में भी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये। - इस प्रकार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंही पंचेन्द्रिय । अपनी अपनी कर्मस्थितिके अनुसार आबाधाकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि आयु कर्मकी आबाधाका ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रमाण आबाधा करके क्षुद्रभवग्रहण मात्र स्थितिका भी बन्ध पाया जाता है, तथा असंक्षेपाद्धा मात्र आवाधामें भी तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थितिका बन्ध पाया जाता है। शेष जैसे शानावरणादिक चार कर्मोकी प्ररूपणा की गई है पैसेही पूर्ण रूपसे प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई भेद नहीं है। शंका-यहां मोहनीय कर्मकी समस्त प्रकृतियोंके प्रदेशपिण्डको ग्रहण करके क्या अनन्तरोपनिधा कही जाती है, अथवा उसकी पृथक् पृथक् प्रकृतियोंके मिषेककी अनन्तरोपनिधा कही जाती हैं ? इनमें प्रथम विकल्प तो योग्य नहीं है, क्योंकि. अनन्तरोपनिधाकी १ प्रतिषु — सणि ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'सग-सगहिदी' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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