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________________ २०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५१. अप्पाबहुआणियोगद्दारमेक्कमेव किमडे पर विदं ? ण एस दोसो, अप्पाबहुअपरूवणाए तेसिं दोण्हं पि अंतभावादो । कुदो ? अणवगयसंत-पमाणेसु परिणामेसु अप्पाबहुगाणुववत्तीदो। तत्थ ताव एगजीवसमासमस्सिदृण संकिलेस-विसोहिहाणाणं परवणा कीरदे । तं जहाजहणियाए हिदीए अत्थि संकिलेसट्टाणाणि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सहिदि त्ति । एवं विसोहिट्ठाणाणं पि पख्वणा कायव्वा । णवरि उक्कस्सहिदिप्पहुडि पख्वेदव्वं । एवं परूवणा गदा। जहणियाए हिदीए संकिलेसट्टाणाणं पमाणमसंखेजा लोगा । बिदियाए हिदीए वि असंखेजा लोगा । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं विसोहिहाणाणं पि विवरीएण पमाणपरुवणा कायव्वा । एत्थ पमाणाणियोगद्दारेण सृचिदाणं सेडि-अवहार-भागाभागाणं परवणं कस्सामो । तत्थ सेडिपवणा दुविहा- अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधाए जहण्णहिदीए संकिलेसटाणेहिंतो बिदियाए टिदीए संकिलेसट्टाणाणि विसेसाहियाणि । को पडिमागो? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । बिदियटिदिसंकिलेसटाणेहिंतो तदियट्ठिदिसंकिलेसट्टाणाणि विसेसाहियाणि । एत्थ पडिभागो शंका-सूत्रमें एक मात्र अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारकी ही प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधानयह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वे दोनों अल्पबहुत्व प्ररूपणाके अन्तर्गत हैं। कारण यह कि सत्त्व और प्रमाणके अज्ञात होनेपर उक्त परिणामों के विषयमें अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा सम्भव नहीं है। उनमें पहिले एक जीवसमासका आश्रय लेकर संक्लेश-विशुद्विस्थानोंकी प्ररूपण की जाती है । यथा-जघन्य स्थितिमें संक्लेशस्थान हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार विशुद्धिस्थानोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि उनकी प्ररूपणा उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर करना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई। जघन्य स्थितिके संक्लेशस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक है । द्वितीय स्थितिके भी संक्लेशस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक ही है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार विशुद्धिस्थानोंके भी प्रमाणकी प्ररूपणा विपरीत क्रमसे करना चाहिये। यहां प्रमाणानुयोगद्वारसे सूचित श्रेणि, अवहार और भागाभागकी प्ररूपणा करते हैं। उनमें श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा-जघन्य स्थितिके संक्लेशस्थानोंसे द्वितीय स्थितिके संक्लेशस्थान विशेष अधिक हैं। प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यातयां भाग है। द्वितीय स्थितिके संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा तृतीय स्थितिके संक्लेशस्थान विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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