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छ खंडागमे वेणाखंड
[ ४, २, ६, ५१.
संपहि अप्पाबहुअपरूवणाए सुतुद्दिट्ठाए विवरणं कस्सामो -- सव्वत्थोवा सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस - विसोहिद्वाणाणि । संपहि संकिलेसट्टाणाणं विसोहिद्वाणाणं च को भेदो ? परियत्तमाणियोणं साद - थिर - सुभ-सुभग- सुस्सर - आदेजादीणं सुभपयडीणं बंधकारणभूदकसायट्ठाणाणि विसोहिद्वाणाणि, असाद - अथिर - असुह - दुभग- [ दुस्सर - ] अणादेजादी परियत्तमाणियाणमसुहपयडीणं बंधकारणंकसाउदयट्टाणाणि कलेसाणा त्ति एसो तेसिं भेदो । वडमाणकसाओ संकिलेसो, हायमाणो विसोहि त्ति किण्ण पदे ? ण, संकिलेस - विसो हिट्ठाणाणं संखाए समाणत्तप्पसंगादो । कुदो ? जणुक्कसपरिणामाणं जहा मेण विसोहि-संकिलेसणियमदंसणा दो मज्झिमपरिणामाणं च संकिलेस-विसो हिपक्खवुत्तिदंसणादो ण च संकिलेस - विसोहिद्वाणाणं संखाए समाणत्तमत्थि, संकिलेसट्टाणेहिंतो विसोहिद्वाणाणि णिच्छण योवाणि त्ति पवाइज्ज माणगुरुवएसेण सह विरोहादो । उक्कस्सद्विदीए विसोहिद्वाणाणि थोवाणि जहण्णद्विदीए
अब सूत्रोद्दिष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाका विवरण करते हैं -सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्या तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ।
शंका- यहां संक्लेशस्थानों और विशुद्धिस्थानोंमें क्या भेद है ?
समाधान - साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बन्धके कारणभूत कषायस्थानोंको विशुद्धिस्थान कहते हैं और असाता, अस्थिर अशुभ, दुभंग, [ दुस्वर ] और अनादेय आदिक परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियोंके बन्धके कारणभूत कषायोंके उदयस्थानोंको संक्लेशस्थान कहते हैं, यह उन दोनोंमें भेद है । शंका-बढ़ती हुई कषायको संक्लेश और हीन होती हुई कषायको विशुद्धि क्यों नहीं स्वीकार करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि वैसा स्वीकार करनेपर संक्लेशस्थानों और विशुद्धिस्थानोंकी संख्या के समान होने का प्रसंग आता है । कारण यह कि जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंके क्रमशः विशुद्धि और संक्लेशका नियम देखा जाता है, तथा मध्यम परिणामोंका संक्लेश अथवा विशुद्धि के पक्ष में अस्तित्व देखा जाता है । परन्तु संक्लेश और विशुद्धि स्थानों में संख्या की अपेक्षा समानता है नहीं, क्योंकि, 'संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा विशुद्धिस्थान नियमसे स्तोक हैं' इस परम्परा से प्राप्त गुरुके उपदेशसे विरोध आता है । अथवा, उत्कृष्ट स्थितिमें विशुद्धिस्थान थोड़े और जघन्य स्थितिमें बे बहुत
१ अ आ-काप्रतिषु ' परियत्तवूणियाणि, ' ताप्रतौ ' परियत्तमाणियाणि ' इति पाठः । सायं थिराई उच्च सुर-मणु दो-दो पर्णिदि चउरसं । रिसह - पसत्यविहायगइ सोलस परियत्तसुभवग्गो ॥ पं. सं. १,८१ २ अ आ-काप्रतिषु 'परियन्त्तवृणियाण ' इति पाठ: । अस्साय थाबरदसं नरयदुगं विहगई य अपसत्था । पंचेदि - रिसभचउरंसगेयरा असुभघोलणिया । पं. सं. १,८२. ३ म प्रतिपाठोऽयम् । अ आ का प्रतिषु C एक्करस ' ताप्रतौ ' ए ( उ ) क्कस्स ' इति पाठः ।
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