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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १. (ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेसि । विविहपरिणामियाणं हवइ हु हेऊ सयं कालो' ॥ २ ॥ लोगागासपदेसे एक्कक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥ ३ ॥ कालो त्ति य क्वएसो सम्भावपरूवओ हवइ णिच्चो।। उप्पण्ण पद्धंसी अवरो दीहंतरहाई ॥ ४ ॥ ति।) अप्पहाणदव्वकालो तिविहो-- सच्चित्तो अच्चित्तो मिस्सओ चेदि । तत्थ सच्चित्तो-- जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहाणादो। अचित्तकालो- जहा धूलिकालो चिक्खल्लकालो उहकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि । मिस्सकालो- जहा सदस-सीदकालो इच्चेवमादि । सामाचारकालो दुविहो- लोइओ लोउत्तरीयो चेदि । तत्थ लोउत्तरीओ सामाचारकालो- जहा वैदणकालो णियमकालो सज्झयकालो झाणकालो इच्चेवमादि । लोगियसामाचारकालोजहा कसणकालो लणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि । आदावणकालो रुक्खमूलकालो बाहिरसयणकालो इच्चादीणं कालाणं लोगुत्तरीयसामाचारकाले अंतब्भावो कायव्यो, किरिया यह काल न स्वयं परिणमता है और न अन्य पदार्थको अन्य स्वरूपसे परिणमाता है। किन्तु स्वयं अनेक पर्यायों में परिणत होनेवाले पदार्थोके परिणमनमें वह उदासीन निमित्त मात्र होता है ॥ २॥ लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर जो रत्नराशिके समान एक एक स्थित हैं उन्हें कालाणु जानना चाहिये ॥ ३॥ 'काल' यह नाम निश्चयकालके अस्तित्वको प्रगट करता है, जो द्रव्य स्वरूपसे नित्य है । दूसरा व्यवहार काल यद्यपि उत्पन्न होकर नष्ट होनेवाला है, तथापि वह [समयसन्तानकी अपेक्षा व्यवहार नयसे आवली व पल्य आदि स्वरूपसे ] दीर्घ काल तक स्थित रहनेवाला है ॥४॥ अप्रधान द्रव्यकाल तीन प्रकार है-सचित्त, अचित्त और मिश्र । उनमें शाकाल, मशककाल इत्यादि सचित्त काल हैं, क्योंकि. इनमें देश के ही उपचारसे कालका विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्तकाल हैं। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है। सामाचारकाल दो प्रकार है- लौकिक और लोकोत्तरीय । उनमें वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल इत्यादि लोकत्तरीय सामाचारकाल हैं। कर्षणकाल, लुननकाल व वपन काल इत्यादि लौकिक सामाचारकाल हैं । आतापनकाल, वृक्षमूलकाल व बाह्यशयनकाल, इत्यादिक कालोका लोकत्तरीय सामाचारकाल मन्तीष करना चाहिये, क्योंकि, क्रियाकाल के प्रति कोई भेद नहीं है अर्थात १ गो. जी. ५६९. २ गो. जी. ५८८. ३ पंचा. १०१. ४ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'संशयकालो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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