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________________ १, २, ६, २.] वैयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अणियोगदारणि सो कालत्तं पडि विसेसाभावादो।। अद्धाकाले। तिविहो- अदीदो अणागओ वट्टमाणो चेदि । पमाणकालो पल्लोवमसागरोवम उस्सप्पिणी ओसप्पिणी-कप्पादिभेदेण बहुप्पयारो । भावकालो दुविहो- आगमदो जोआगमदो चेदि । तत्थ कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावकालो । णोआगमभावकालो ओदइयादिपंचणं भावाणं सगरूवं । एदेसु कालेसु पमाणकालेण पयदं । कालस्स विहाणं कालविहाणं, वेयणाए कालविहाणं वेयणाकालविहाणं । तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि भवंति । कुदो ? संखा-गुणयार द्वाण-जीवसमुदाहार-ओज जुम्माणियोगद्दाराणमेत्थेव अंतब्भावदसणादा। ताणि काणि त्ति उत्ते उत्तरसुत्तमागय - पदमीमांसा-सामित्तमप्पाबहुए त्ति ॥२॥ तिसु अणियोगद्दारेसु पदमीमांसा चेव पढमं किमढे उच्चदे ? ण, पदेसु अणवगएसु पदसामित्त-पदप्पाबहुआणं परवणोवायाभावादो । तदणंतरं सामित्तपरूवणं किमट्ठ कीरदे ? ण, पमाणे अणवगए पदप्पाबहुगाणुववत्तीदो। तम्हा एसो चेव अणियोगद्दारक्कमो होदि, णिरवज्जत्तादो। क्रियाकाल की अपेक्षा इनमें कोई विशेषता नहीं है। अद्धाकाल तीन प्रकार है-अतीत, अनागत और वर्तमान । प्रमाणकाल पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और कल्पादिके भेदसे बहुत प्रकार है। भावकाल दो प्रकार है- आगमभावकाल और नोआगमभावकाल । उनमें कालप्रामृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावकाल है । नोआगमभावकाल औदयिक आदि पांच भावों स्वरूप है। इन कालों में प्रमाणकाल प्रकृत है । कालका जो विधान है वह काहविधान है, वेदनाका कालविधान वेदनाकालविधान कहा जाता है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार है, क्योंकि संख्या, गुणकार, स्थान, जीवसमुदाहार, ओज और युग्म, इन अनुयोगद्वारोंका उक्त तीनों अनुयोगद्वारों में अन्तर्भाव देखा जाता है। वे तीन अनुयोगद्वार कौनसे हैं, ऐसा पूछने पर उत्तर सूत्र प्राप्त होता है पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये वे तीन अनुयोगद्वार हैं ॥२॥ शंका-इन तीन अनुयोगद्वारोंमें पहिले पदमीमांसाका ही निर्देश किसलिये किया है ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, पदोंके अज्ञात होनेपर पदस्वामित्व और पदअल्पबहुत्वकी प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं है। शंका-पदमीमांसाके पश्चात् स्वामित्वप्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रमाणका ज्ञान न होने पर पदोंका अल्पबहुत्व बन नहीं सकता । इस कारण यही अनुयोगद्वारक्रम ठीक है, क्योंकि, उसमें कोई दोष नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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