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________________ ४, २, ६, १०२. ] माहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [ २४१ तत्थेव विदियणिसेयो विसेसहीणो । केत्तियमेत्तेण ? णिसेगभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तेण । तत्थेव तदियसमए णिसित्तं पदेसग्गं विसेसहीणं रूवूणणिसेगभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तेण । एवं यव्वं जाव एत्थतणपढमणिसेयस्स अद्धं' चेद्विदं ति । एवं यष्वं जाव चरिमगुणहाणि त्ति । एत्थ संदिट्ठी १४४ ७२ | ३६ | १८ ९ १६० ८० ४० | २०१० १७६ ८८ ४४ २२ ११ १९२ ९६ ४८ २४ दोगुणहाणि पहुड रूवणकमेण जाव रूवाहियगुणहाणि ति ठवेण रूवणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोष्णन्भत्थरासिणा पादेकं गुणिय पुणो रूवूणणाणागुणहाणिसलागमेत्तपडिरासीयो अद्धद्धं काऊण १२ पक्खेवे सब्वे वि मेलाविय समयपबद्धे भागे हिदे जं लद्धं तेण सव्वपक्खेवेसु पादेकं गुणिदेसु इच्छिद - इच्छिदणिसेगा होंति, २०८ १०४ ५२ २६ १३ २२४ ११२ ५६ २८ १४ २४० १२० ६० ३० १५ २५६ | १२८ ६४ ३२ १६ प्रक्षेपकसंक्षेपेण विभक्ते यद्धनं समुपलद्धं । प्रक्षेपास्तेन गुणा प्रक्षेपसमानि खंडानि ॥ ६ ॥ इति संख्यानशास्त्रे उक्तत्वाँत् ।) पश्चात् द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेककी अपेक्षा उसका ही द्वितीय निषेक विशेष न है। कितने मात्र से वह विशेष होन है ? निषेकभागहारका भाग देनेसे जो प्राप्त हो उतने मात्र से वह विशेष हीन है । द्वितीय गुणहानिके तृतीय समय में निषिक प्रदेशाप्र एक अंक कम निषेकभागहारका भाग देनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्र से विशेष हीन है । इस प्रकार यहाँके प्रथम निषेकका अर्ध भाग स्थित होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार अन्तिम गुणहानि तक लेजाना चाहिये । यहाँ संदृष्टि - ( मूलमें देखिये ) । दो गुणहानियों (८ x २ = १६ ) को आदि लेकर एक एक अंक कमके क्रमसे एक अधिक गुणहानिप्रमाण ( १६, १५, १४, १३, १२, १२, १०, ९ ) तक स्थापित करना चाहिये । पश्चात् उनमेंसे प्रत्येकको एक कम नानागुणह । निशलाकाओं ( ५-१ ) की अन्योन्याभ्यस्त राशि ( १६ ) से गुणित ( १६४१६ ) करके एक कम नानागुणहानिशलाका (४) प्रमाण प्रतिराशियोंको आधी आधी करके ( १२८, ६४, ३२, १६ ) स्थापित करना चाहिये । पश्चात् इन सभी प्रक्षेपोंको मिलाकर प्राप्त राशिका समयप्रबद्धमें भाग देने पर जो लब्ध हो उससे सब प्रक्षेपोंमेंसे प्रत्येकको गुणित करनेपर इच्छित इच्छित निषेकका प्रमाण होता है, क्योंकि प्रक्षेपोंके संक्षेप अर्थात् योगफलका विवक्षित राशिमें भाग देनेपर जो धन प्राप्त हो उससे प्रक्षेपोंको गुणा करनेपर प्रक्षेपोंके बराबर खण्ड होते हैं ॥ ६ ॥ ऐसा गणितशास्त्र में कहा गया है । (पु. ६, पृ. १५८ ) देखिये । १ अ आ का प्रतिषु ' अत्थं ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु रासी उक्तत्वात् ' इति पाठः । छ. ११-३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only • संख्यांनि www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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