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________________ २६२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १२०. पुणो उवरिमणिसेयपमाणेण सव्वट्ठिदिपदेसग्गं केवचिरेण कालेण अवहिरिजदि ? गुणहाणिद्वाणंतरेण कालेन । तं जहा — दिवड गुणहाणिक्खेत्तं पढमणिसेगविक्खंभेण चत्तारि फालीयो कादूण पुणो तत्थ चउत्थफालिं घेत्तूण गुणहाणिअद्धपमाणेण तिण्णि खंडाणि कादूण परावत्तिय तिष्णं फालीणं पासे ठविदेसु बेगुणहाणीयो होंति अधवा, तेरासियकमेण आणेदव्वं । तं जहा - १६ । १२ । १ । १६ । १२ । ४ । णिसेयभागहारस्स तिष्णि-चदुब्भागमेत्तविसेसे घेत्तूण जदि एगं तदित्थणिसेयपमाणं लब्भदि तो आयामेण दिवङगुणहाणिविक्खंभेण णिसेयभागहारचदुब्भागमेत्तविसेसेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए गुणहाणीए अद्धमागच्छदि ४ । पुणो एदम्मि दिवङ्कगुणहाणिम्मि पक्खित्ते दोगुणहाणीयो भवंति १६ । पुणो एदाहि सव्वदव्वे भागे हिदे तदित्यणिसेयो आगच्छदि । तदुवरि भागहारे वुच्चमाणे सादिरेय-बे-गुणहाणीयो वत्तव्वाओ । एवं दव्वं जाव पढमगुणहाणिचरिमसमओ | M बिदियगुणहाणिपढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिजमाणे केवचिरेण कालेण अवहिरिजदि ? तिण्ण गुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण । तं जहा - दिवङगुणहाणिक्खेत्तं ठविय अद्धेण उससे अग्रिम निषेकके प्रमाणसे सब स्थितियोंका प्रदेशाग्र कितने कालमें अपहृत होता है ? उक्त प्रमाणसे वह दोगुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । यथाडेढ़ गुणहानि मात्र क्षेत्रकी प्रथम निषेकके विस्तारप्रमाणसे चार फालियां करके पश्चात् उनमें से चतुर्थ फालिको ग्रहण कर गुणहानिके अर्ध प्रमाणसे तीन खण्ड करके परिवर्तनपूर्वक तीन फालियोंके पार्श्व भाग में स्थापित करनेपर दो गुणहानियां होती हैं । (संदृष्ट मूलमें देखिये । ) अथवा, त्रैराशिकक्रमसे इसे ले आना चाहिये । यथा - निषेक भागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र विशेषोंको ग्रहण करके यदि वहांके एक निषेकका प्रमाण पाया जाता है, तो आयाम ( ? ) व डेढ़ गुणहानि विष्कम्भसे निषेकभागहारके चतुर्थ भाग मात्र विशेषों में वह कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर गुणहानिका अर्ध भाग आता है । फिर इसको डेढ़ गुणहानियोंमें मिलानेपर दो गुणहानियां (१६) होती हैं। इनका सब द्रव्य में भाग देनेपर वहांके निषेकका प्रमाण लब्ध होता है। उससे आगे के भागहारका कथन करनेपर साधिक दो गुणहानियां कहना चाहिये । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह कितने कालसे अपहृत होता है ? उक्त प्रमाणसे वह तीन गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । यथा— डेढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको स्थापित करके (संदृष्टि मूलमें देखिये ) अर्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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