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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १६५. सव्वत्थोवा आउअस्स जहण्णाबाहा इदि वुत्ते असंखेयद्धपिढमसमए आउअकम्मबंधमाढविय जहण्णबंधगद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स जा आबाहा सा घेत्तव्वां, तत्तो ऊणाएँ अण्णाबाहाए अणुवलंभादो । खुद्दाभवग्गहणप्पहुडि समउत्तर- दुसमउत्तरादिकमेण जाव अपजत्तउक्कस्साउअं ति ताव णिरंतरं गंतॄण पुणो उवरि अंतोमुहुत्तमंतरं होण सण असणपजत्ताणं जहण्णाउअं होदि । पुणो एदमादिं कादूण उवरि णिरंतरं गच्छदि जाव तेत्तीससागरोवमाणि त्ति । तेण जहण्णविदिबंधमुक्कस्सट्ठिदिबंधम्हि सोहिदे सेसकम्माणं व आउअस्स द्विदिबंधाणविसेसो ण उप्पजदि त्ति घेत्तव्वं । एवमप्पा बहुगं समत्तं । - ( बिदिया चूलिया ) ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगदाराणि जीवसमुदाहारोपयडिसमुदाहारो द्विदिसमुदाहारो र्त्ति ॥ १६५ ॥ संपधि इमा कालविहाणस्स बिदिया चूलिया किमहमागदा ? ठिदिबंधहाणाणं कारणभृदअज्झवसाणट्ठाणपरूवणङ्कं । (ट्ठिदिबंधट्ठाणबंधकारणसंकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं परूवणा ३०८ ] ' आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है ऐसा' कहनेपर असंख्येयाद्धा असंक्षेपाडा ) के प्रथम समय में आयु कर्मके बन्धको प्रारम्भ करके जघन्य बन्धककालके अन्तिम समय में वर्तमान जीवके जो आबाधा होती है उसका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उससे हीन और अन्य आबाधा पायी नहीं जाती । क्षुद्रभवग्रहणको आदि लेकर एक समय अधिक दो समय अधिक इत्यादि क्रम से जब तक अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आयु नहीं प्राप्त होती तब तक निरन्तर जाकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त अन्तर होकर संज्ञी व असंशी पर्यातकोंकी जघन्य आयु होती है । फिर इसको आदि लेकर आगे तेतील सागरोपम तक निरन्तर जाते हैं । इसलिये उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेंसे जघन्य स्थितिबन्धको कम करनेपर शेष कर्मोंके समान आयु कर्मका स्थितिबन्धविशेष उत्पन्न नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । (द्वितीय चूलिका ) स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्ररूपणा अधिकृत है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं— जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार ॥ १६५ ॥ शंका- अब यह कालविधानकी द्वितीय चूलिका किसलिये आयी है ? समाधान स्थितिबन्धस्थानोंके कारणभूत अध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये प्राप्त हुई है । १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ आ-का-ताप्रतिषु ' संखेयद्धा -' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु ' जाव आबाहा घेत्तव्वा', मप्रतौ 'नाव आबाहा सा घेत्तव्वा' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' ऊणए' इति पाठः । ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'अण्णाबाहा अणुवलंभादो' इति पाठः । ५ तदेवमुक्तमल्पबहुत्वम् । इदानीं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्ररूपणा कर्तव्या । तत्र त्रीण्यनुयोगद्वाराणि । तद्यथा — स्थितिसमुदाहारः १, प्रकृति - समुदाहारः २, जीवसमुदाहारश्च ३ । समुदाहारः प्रतिपादनम् । क.प्र. (म.टी.) १,८७ गाथामा उत्था निका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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