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________________ २१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. एदं पि कथं णव्वदे? जहण्णपरित्तासंखेजयस्स वग्गं विरलिय तग्घणं समखंडं करिऊण दिण्णे ख्वं पडि जहण्णपरित्तासंखेनं पावदि, तत्थ एगेगवे गहिदे जहण्णपरित्तासंखेजवग्गमेत्तवोवलद्धी होदि, ताणि स्वाणि पासे विरलिदजहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स समखंड कादृण दिण्णेसु रूवं पडि जहण्णपरित्तासंखेजं पावदि, पुणो तत्थ स्वधरिदं पडि एगेगरूवे गहिदे जहण्णपरित्तासंखेज उप्पज्जदि, पुणो तत्थ एगरूवमवणिय पासे विरलिदएगरुवस्स दिण्णे उक्कस्ससंखेनं पावदि, पुणो अवणिदएगरूवं एदीए विरलणाए खंडेदृण तत्थ एगेगखंडे रूवं पडि दिण्णे एगरूवस्स असंखेज्जदिभागेणब्भहियउक्कस्ससंखेज्जगुणगारो होदि, तेण णव्वदे। संपहि पढमखंडझवसाणहितो पंचमखंडज्झवसाणा जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स वग्गवग्गेण गुणिदमेत्ता होंति, चत्तारिजहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थे कदे चदुण्णं जहण्णपरित्तासंखेजाणमण्णोण्णभत्थरासिसमुप्पत्तीदो । एवं सेसखंडाणं पि पुव्वं व गुणगारो साहेयब्बो । संपहि चदुक्खंडसव्वज्झवासणेहिंतो शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-जघन्य परीतासंख्यातके वर्गका विरलन कर उसके घनको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यात पाया जाता है । उन विरलित अंकोंमेंसे एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशियोंमेंसे एक एक अंकको ग्रहण करने पर जघन्य परीतासंख्यातके वर्ग प्रमाण अंक पाये जाते हैं। उन अंकोंको पासमें विरलित जघन्य परीतासंख्यातके प्रति समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यात पाया जाता है । फिर उनमेंसे एक एक अंकके ऊपर रखी हुई प्रत्येक राशिमेंसे एक एक रूपके ग्रहण करनेपर जघन्य परीतासंख्यात उत्पन्न होता है । पुनः उनमेंसे एक अंकको कम कर पासमें विरलित एक रूपके प्रति देनेपर उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त होता है। पश्चात् कम किये गये एक अंकको इस विरलन राशिसे खण्डित कर उनमेंसे एक एक खण्डको प्रत्येक अंकके प्रति देनेपर एक रूपके असंख्यातवें भागसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात गुणकार होता है । इसीसे वह जाना जाता है। प्रथम खण्डके परिणामोंकी अपेक्षा पंचम खण्डके परिणाम जघन्य परीतासंख्यातके वर्गका वर्ग करनेपर जो प्राप्त हो उतने गुणे हैं, क्योंकि, चार जघन्य परीतासंख्यातोंके अर्धच्छेदोंको विरलित कर द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर चार जघन्य परीतासंख्यातोंकी अन्योन्याम्यस्त राशि उत्पन्न होती है। इसी प्रकार शेष खण्डोंके भी गुणकारका कथन पहिलेके ही समान करना चाहिये। १ अ-आ-का प्रतिषु 'फरियअण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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