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________________ ३४६ ) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २२९ पयडिसमुदाहारे ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि पमाणाणुगमो अप्पाबहुए ति ॥२३९॥ परूवणाए सह तिण्णिअणियोगद्दाराणि किण्ण परूविदाणि ? ण, एदेसु चेव परूवणाए अंतम्भूदत्तादो । ण च परूवणाए विणा पमाणादीणं संभवो अस्थि, विरोहादो । तेण एत्य ताव परूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा-अत्थि णाणावरणादीणं पयडीणं द्विदिबंधज्झवसाणहाणाणि । पख्वणा गदा।। पमाणाणुगमे णाणावरणीयस्स असंखेज्जा लोगा डिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ॥ २४०॥ णाणावरणीयस्स हिदिबंधकारणअज्झवसाणहाणाणि सव्वाणि एगहें कादूण एसा परूवणा परूविदा । ठिदिं पडि अज्झवसाणहाणाणमेसा पमाणपरूवणा ण होदि, उवरि द्विदिसमुदाहारे हिदि पडि अज्झवसाणपमाणस्स परूविजमाणत्तादो । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ २४१ ॥ जहा णाणावरणीयस्स हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणमव्वोगाढेण पमाणपरूवणा कदा ___ अब प्रकृतिसमुदाहारका अधिकार है। उसमें दो अनुयोगद्वार हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व ॥ २३९ ॥ शंका-प्ररूपणाके साथ यहां तीन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान नहीं, क्योंकि, इनमें ही प्ररूपणाका अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि प्ररूपणाके विना प्रमाणादिकोंकी सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि, उसमें विरोध है। इसी कारण यहां पहिले प्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणादिक प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं । प्ररूपणा समाप्त हुई। प्रमाणानुगमके अनुसार ज्ञानावरणीयके असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं ॥ २४०॥ शानावरणीयके स्थितिबन्धमें कारणभूत सब अध्यवसानस्थानोंको इकट्ठा करके यह प्रमाणप्ररूपणा कही गई है। प्रत्येक स्थितिके अध्यवसानस्थानोंकी यह प्रमाणप्ररूपणा नहीं है, क्योंकि, आगे स्थितिसमुदाहारमें प्रत्येक स्थितिके आश्रयसे अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की जानेवाली है। इसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी प्रमाणप्ररूपणा है ॥ २४१॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी अब्योगाढ स्वरूपसे १ आप्रतौ 'समुदाहारो' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः 'इमा दुवो' इति पाठः। ३ संप्रति प्रकृतिसमुदाहार उच्यते । तत्र च द्वे अनुयोगद्वारे। तद्यथा--प्रमाणानुगमः अल्पबहुत्वं च । तत्र प्रमाणानुगमे ज्ञानावरणीयस्स सर्वेषु स्थितिबन्धेषु कियन्त्यध्यसायस्थानानि १ उच्यते-असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । एवं सर्वकर्मणामपि द्रष्टव्यम् । क. प्र. (म. टी.) १,८८.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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