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________________ ४, २, ५, ३. ] माहियारे वेयणखेत्तविहाणे पदमीमांसा ३ हति । एत्थ अहियारा तिण्णि चेव किमहं परूविज्जति ? ण, अण्णेसिमेत्थ संभवाभावादो । कुदो ? [ण] संखा-ट्ठाण जीवसमुदाहाराणमेत्थ संभवो, उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णभेदभिण्णसामित्ताणिओगद्दारे एदेसिमंत भावादो | ण ओज - जुम्माणिओगद्दारस्स वि संभवो, तस्स पदमीमांसाए पवेसादो । ण गुणगाराणिओगद्दारस्स वि संभवो, तस्स अप्पाबहुए पवेसादो । तम्हा तिणि चेव अणिओगद्दाराणि होंति त्ति सिद्धं । पदमीमांसा सामित्तं अप्पा बहुए ति ॥ २ ॥ पढमं चैव पदमीमांसा किमट्ठमुच्चदे ?ण, पदेसुं अणवगएसु सामित्तप्पाबहुआणं परूवणोवायाभावादो' । तदणंतरं सामित्ताणिओगद्दारमेव किमहं वुच्चदे ? ण, अणवगए पदप्पमाणे तदप्पा बहुगाणुववत्तदो । तम्हा एसेव अहियारविण्णासक्कमो इच्छियव्वो, रिवज्जाद | पदमीमांसा णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो किं उक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ? ॥ ३ ॥ ) शंका यहां केवल तीन ही अधिकारोंकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है। समाधान- नहीं, क्योंकि, और दूसरे अधिकार यहां सम्भव नहीं है। कारण कि संख्या, स्थान और जीवसमुदाहार तो यहां सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, इनका अन्तर्भाव उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य भेदसे भिन्न स्वामित्वअनुयोगद्वार में होता है । ओज-युग्मानुयोगद्वार भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसका प्रवेश पदमीमांसा में है । | गुणकार अनुयोगद्वार भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसका प्रवेश अल्पबहुत्वमें है । इस कारण तीन ही अनुयोगद्वार हैं, यह सिद्ध है । पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार यहां ज्ञातव्य हैं ॥ २ ॥ शंका - पदमीमांसाको पहिले ही किसलिये कहा जाता है ? समाधान चूंकि पदों का ज्ञान न होनेपर स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररू पणा की नहीं जा सकती, अत एव पहिले पदमीमांसाकी प्ररूपणा की जा रही है । शंका - उसके पश्चात् स्वामित्व अनुयोगद्वारको ही किसलिये कहते हैं ? - समाधान - नहीं, क्योंकि, पदप्रमाणका ज्ञान न होनेपर उनका अल्पबहुत्व बन नहीं सकता। इस कारण निर्दोष होनेसे उक्त अधिकारोंके इसी विम्यासक्रमको स्वीकार करना चाहिये । पदमीमांसा— ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, और क्या अजघन्य है १ ॥ ३ ॥ १ ताप्रतौ ' पदे [ से ] ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'पदणावायाभावादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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