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________________ ४, २, ६, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे आबाधाकंडयपरूवणा [२६७ आगदा । एत्य तिण्णि अणियोगद्दाराणि परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेव । पमाणप्पायहुआणं संभवो होदु णाम, सुत्तसिद्धत्तादो। सुत्तम्मि असंतीए परूवणाए कधमेत्य संभवो ? ण एस दोसो, परूवणाए विणा पमाणप्पाबहुआणमणुववत्तीदो। तत्थ ताव सुत्तेण सूचिदपरूवणा बुच्चदे । तं जहा–चोदसण्णं जीवसमासाणं अत्थि आबाहाकंदयाणि आबाहाहाणाणि च । आबाहाकंदयपवणाए कधमाबाहट्ठाणाणि वुच्चंति ? ण, आबाहाकंदयपरूवणाए आबाहट्ठाणाविणाभावेण देसामासियत्तमावण्णाए आबाहट्ठाणपरूवणं पडि विरोहाभावादो । पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं चउरिंदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं एइंदियबादर-सुहुम-पजत्त-अपज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणमुक्कस्सियादो द्विदीदो समए समए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमोसरिदूण एयमाबाहाकंदयं करेदि । एस कमो जाव जहणिया द्विदि त्ति' ॥ १२२॥ समए समए इदि वुत्ते आबाधाए एगेगसमए इदि ,वृत्तं होदि । उक्कस्साबाहाए इस आबाधाकाण्डकप्ररूपणामें तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । शंका-प्रमाण और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोंकी सम्भावना भले ही हो, क्योंकि, वे सूत्रसे सिद्ध हैं । परन्तु सूत्र में न पाये जानेवाले प्ररूपणा अनुयोगद्वारकी सम्भावमा यहां कैसे हो सकती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्ररूपणाके बिना प्रमाण और अल्प. बहत्वका कथन बन ही नहीं सकता। उनमें पहिले सूत्रसे सूचित प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-चौदह जीवसमासोंके प्रावधाकाण्डक और आवाधास्थान दोनों हैं। शंका-आबाधाकाण्डकप्ररूपणामें आवाधास्थानोंका कथन क्यों किया जा रहा है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आबाधाकाण्डकप्ररूपणाका आबाधास्थानप्ररूपणाके साथ अविनाभाव सम्बन्ध है, अतः आबाधास्थानप्ररूपणाके प्रति देशामर्शक भावको प्राप्त हुई आबाधाकाण्डकपणामें आबाधास्थानोंका कथन करना विरुद्ध नहीं है। ___ संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय इन पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके आयुको छोड़ शेष सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे समय समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे उतर कर एक आबाधाकाण्डकको करता है। यह क्रम जघन्य स्थिति तक है ॥ १२२॥ . सूत्रमें 'समए समए' ऐसा कहनेसे आवाधाके एक एक समयमें, ऐसा अभिप्राय १ मोत्तूण आउगाई समए समए अबाहहाणीए । पल्लासंखियभागं कंडं कुण अप्पबहुमेसि ॥ क. प्र. १, ८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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