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________________ २६८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, १२२ चरिमसमए णिरुद्ध उक्कस्सहिदीदो हेट्ठा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तमोसरिदूण एयमाबाहाकंदयं करेदि । आबाहचरिमसमयं णिरुभिदूण उक्कस्सियं हिदि बंधदि । तत्तो समऊणं पि बंधदि । एवं दुसमऊणादिकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेगुणहिदि त्ति । एवमेदेण आबाहाचरिमसमएण बंधपाओग्गद्विदिविसेसाणमेगमाबाहाकंदयमिदि सण्णा त्ति वुत्तं होदि। आबाधाए दुचरिमसमयस्स णिरुंभणं कादृण एवं चेव बिदियमाबाहाकंदयं परुवेदव्वं । आबाहाए तिचरिमसमयणिरुंभणं कादृण पुवं व तदिओ आबाहाकंदओ पवेदव्यो। एवं णेयव्वं जाव जहणिया हिदि त्ति । एदेण सुत्तेण एगाबाहाकंदयस्स पमाणपरूवणा कदा । ___संपहि देसामासियत्तमावण्णेण एदेण सुत्तेण सूचिदाणमाबाहहाणाणमाबाहाकंदयसलागाणं च पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा— सण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि संखेजवासमेत्ताणि । सण्णिपंचिंदियअपजत्ताणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि । असण्णिपंचिंदिय-चउरिंदिय-तीइंदिय समझना चाहिये । उत्कृष्ट आवाधाके अन्तिम समयकी विवक्षा होनेपर उत्कृष्ट स्थितिसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे उतर कर एक आबाधाकाण्डकको करता है। आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बांधता है । इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार आबाधाके इस अन्तिम समयमें बन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा है, यह अभिप्राय है। आबाधाके द्विचरम समयकी विवक्षा करके इसी प्रकारसे द्वितीय आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करना चाहिये । आवाधाके त्रिचरम समयकी विवक्षा करके पहिलेके ही समान तृतीय आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिये। इस सूत्रके द्वारा एक आबाधाकाण्डकके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है। अब देशमार्शक भावको प्राप्त हुए इस सूनके द्वारा सूचित आबाधास्थानों और आबाधाकाण्डकशलाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही संख्यात वर्ष प्रमाण हैं। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं । असंही पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय [ पर्याप्तक अपर्याप्त ] १ ताप्रतौ ' समऊणं बंधदि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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