________________
५२ ]
छैक्खंडाममे वेयणाखंड
[ ४, २, ५, २१.
लोगणाली वायव्वदिसादो तिण्णि विग्गहकंदयाणि काढूण मारणंतियसमुग्धादेण सत्तमपुढवीणेरइएस सेकाले उप्पज्जहिदि ति ट्ठिदस्स खेत्तं सरिसं होदि । एवं वड्डदू दो च अण्णगो वेयणसमुग्धादेण तिगुणविक्खंभुस्सेहे काऊण मारणंतियसमुग्धादेण अद्धदुमरज्जूर्ण णवमभागं गंतूण ट्ठिदो च ओगाहणाए सरिसा । पुणो वि पुव्विल्लं मोत्तूण इमं घेण निरंतर -सांतरकमेण पुव्वं व वढावेदव्वं जाव आयामो अद्धट्ठमरज्जुमत्तं पत्तोति । एवं वड्डाविदे णाणावरणीयस्स अजहण्णसव्वखेत्तवियपाणं सामित्तपरूवणा कदा होदि । अधवा सित्थंमच्छो चेव मारणंतियसमुग्धादेण तिण्णि विग्गहकंदयाणि कादूण सादिरेयजद्धट्ठमरज्जुआयामस्से णेदव्वो । पासखेत्ते वड्डाविज्जमाणे एक्कसराहेण पासम्म वड्डिदअद्धट्टमरज्जूओ पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तमायामम्मि अवणिय सरिसं काढूण पुणो सांतर - निरंतर कमेण ऊणक्खेत्तं वढावेदव्वं । एवं पुणो पुणो पासखेत्तं वड्डाविय पुव्विल्लखेत्तेण सरिसं करिय पुणो ऊणक्खेत्तं वढ्ढाविय णदव्वं जाव महामच्छुक्कस्ससमुग्धादखेत्तेण सरिसं जादं ति एवं णाणावरणीयस्स अजहण्णसामित्तपरूवणा कदा होदि ।
।
जाने तक ले जाना चाहिये । इस क्षेत्रसे, जो लोकनालीकी वायव्य दिशासे तीन विग्रहकाण्डक करके मारणान्तिकसमुद्घातसे सातवीं पृथिवीके नारकियों में अनन्तर समय में उत्पन्न होनेके सन्मुख स्थित है उसका, क्षेत्र समान है । इस प्रकार बढ़कर स्थित तथा दूसरा एक वेदनासमुद्घातसे तिगुणे विष्कम्भ व उत्सेधको करके मारणान्तिकसमुद्घातसे साढ़े सात राजुओके नौवें भागको प्राप्त होकर स्थित हुआ, ये दोनों जीव अवगाहनाकी अपेक्षा समान हैं । फिरसे भी पहिलेको छोड़कर और इसे ग्रहणकर निरन्तर - सान्तर क्रमसे आयामके साढ़े सात राजु प्रमाणको प्राप्त होने तक पहिलेके ही समान बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाने पर ज्ञानावरणीयके सब अजघन्य क्षेत्र विकल्पोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा समाप्त हो जाती है ।
अथवा सिक्थ मत्स्यको ही मारणान्तिकसमुद्घातसे तीन विग्रह काण्ड को को कराकर साधिक साढ़े सात राजु आयामको प्राप्त कराना चाहिये । पार्श्वक्षेत्र के बढ़ाते समय एक साथ पार्श्वक्षेत्रमें वृद्धिको प्राप्त साढ़े सात राजुओं को प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्डप्रमाणको आयाममें से कम करके सदृश कर फिर सान्तर निरन्तर क्रमसे कम किये गये क्षेत्रको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वार वार पार्श्वक्षेत्रको बढ़ाकर पूर्व क्षेत्र के समान करके पश्चात् कम किये गये क्षेत्रको बढ़ाकर महामत्स्यके उत्कृष्ट समुद्घातक्षेत्र के सदृश हो जाने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ज्ञानावरणीयके अजघन्य क्षेत्र सम्बन्धी स्वामित्वकी प्ररूपणा समाप्त होती है ।
' प्रतिषु 'सिद्ध' इति पाठः । पासयत्तं ' इति पाठः ।
Jain Education International
२ ताप्रतौ 'सादिरेया अद्बठ्ठमरज्जू आयामस्स ' इति पाठः ।
For Private & Personal Use Only
३ प्रतिषु
www.jainelibrary.org