SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक्खंडागमे वेयणाखंड 自己 t ४, २, ५, ११. विरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामोत्त पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एवरूवमागच्छदि । तग्मि उवरिमविरलणाए अवणिदे तदित्थखेत्तवियप्पभागहारो होदि । एवं गंतूण जहण्णोगाहणं' जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडे - दूण तत्थ एखंडे वडिदे वि असंखेज्जभागवड्डी चेव । एत्थ समकरणे कीरमाणे परिहीणरुवाणयणं उच्चदे -- रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तद्धाणम्मि जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदार परिहाणि - रूवाणि आगच्छति । पुणो ताणि उवरिमविरलणाए अवणिदे तदित्थअजहण्णखेत्तट्ठाण भागा होदि । पुणो एदिस्से ओगाहणाए उवरि' पदेसुत्तरं वड्डिय द्विदजीवो तदणंतर उर्वरिमखेतसामी होदि । एत्थ वि असंखेज्जभागवड्डी चेव, उक्कस्स संखेज्जेण जहण्णोगाहणं खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तपदे साणं वड्डीए अभावाद । एवं गंतूण उक्कस्ससंखेज्जेण जहण्णोगाहणं खंडिय तत्थेगखंडे जहण्णोगाहणाए उवरि वड्डिदे संखेज्जभागवड्डीए आदी असंखेज्जभागवड्डीए परिसमत्ती च जादाँ । एत्थ भागहारो उच्चदे । तं जहा- उक्करससंखेज्जं विरलिय उवरिमएगरूत्रकहते हैं- रूपाधिक विरलन राशि प्रमाण अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक रूप आता है । उसको उपरिम विरलनमें से कम करनेपर वहां के क्षेत्रविकल्पका भागहार होता है। इस प्रकार जाकर जघन्य अवगाहनाको जघन्य परीता संख्यात से खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड मात्र वृद्धि हो जानेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही रहती है । --- यहां समकरण करते समय हीन रूपोंके लानेके विधानको कहते हैं- रूपा - धिक जघन्य परीता संख्यात मात्र अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो उपरम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर हीन रूपोंका प्रमाण आता है । उनको उपरिम विरलन में से कम करनेपर वहां अजघन्य क्षेत्रस्थानका भागहार होता है । पुनः इस अवगाहनाके ऊपर एक प्रदेश अधिक क्रमसे बढ़कर स्थित जीव तदनन्तर उपरिम क्षेत्रका स्वामी होता है। यहां भी असंख्यात भागवृद्धि ही रहती है, क्योंकि, उत्कृष्ट संख्यातसे जघन्य अवगाहनाको खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र प्रदेशोंकी वृद्धिका अभाव है । इस प्रकार जाकर जघन्य अवगाहनाको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड मात्र जघन्य अवगाहनाके ऊपर वृद्धि हो चुकनेपर संख्यात भागवृद्धि की आदि और असंख्यात भागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है । यहां भागहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- उत्कृष्ट संख्यातका विरलन १ अ-काप्रत्योः ' जहण्णोगाहणा', ताप्रतौ ' जहण्णोगाहणा (ण) इति पाठः । २ प्रतिषु ' उवरिम ' इति पाठः । ३ काप्रतौ ' जहण्णोगाहणा' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'वड्डी-अभावादो'; तात्रौ ' वह्निअभावादो' इति पाठः । ५ अवरोग्गाहणमाणे जहणपरिमिदअसंखरासिहिदे । अवरस्तुवरि उड्डे जेट्टमसंखेज्जमागस्स ।। गो. जी. १०३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy