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________________ छक्खंडागमे यणाखंडं ४, २, ५, ९८. बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९८ ॥ एत्थ बादरा त्ति उत्ते जेण बादरणामकम्मोदइल्लाणं जीवाणं गहणं तेण बीइंदियादीपि गहणं होदि । बादर ओगाहणादो अण्णा बादरओगाहणा जत्थ असंखेज्जगुणा त्ति भणिदं तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति घेत्तव्वो । बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो संखेज्जा समया ॥९९॥ बीइंदियादिणिव्वत्तिअपज्जत्तएसु तेर्सि पज्जत्तएस च ओगाहणगुणगारो संखेज्जा समयात्तत्तव्वो । पुविल्लसत्तेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे गुणगारे पत्ते तप्पडिसेहट्ठेमिदं सुत्तमारद्धं, तेण ण दोष्णं पि सुत्ताणं विरोहो । एदे एत्थ गुणगारा होंति त्ति क नव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादा णव्वदे । ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगादा । णाणावरणादीणमट्टण्णं पि कम्माणमोगाहणपरूवणङ्कं खेत्ताणियोगद्दारे परुविज्जमाणे जीवसमासाणमागाहणपरूवणा किमईमेत्थ परूविदा ? एत्थ परिहारो उच्चदे | एसो woj बादरस्ते बादरका अवगाहनागुणकार पत्येोपमका असंख्यातवां भाग है ॥ ९८ ॥ यहां सूत्रमें 'बादर से' ऐसा कहनेपर चूंकि बादर नामकर्मके उदय युक्त जीवोंका ग्रहण है, अतः उससे द्वीन्द्रियादिक जीवोंका भी ग्रहण होता है । बादरकी अवगाहना से जहां दूसरे बादर जीवकी अवगाहना असंख्यातगुणी कही है वहां पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार ग्रहण करना चाहिये, बादरसे दूसरे बादर जीवकी अवगाहनाका गुणकार संख्यात समय है ॥ ९९ ॥ द्वीन्द्रिय आदिक निर्वृत्त्य पर्याप्तकों और उनके पर्याप्तकों में अवगाहनाका गुणकार संख्यात समय है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। पूर्व सूत्रले पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र गुणकारके प्राप्त होनेपर उसका प्रतिषेध करनेके लिये यह सूत्र रचा गया है । इसीलिये उपर्युक्त दोनों सूत्रों में कोई विरोध नहीं है । शंका- ये वहां गुणकार होते हैं, ऐसा कैसे जाना जाता है ? समाधान – वह इसी सूत्र से जाना जाता है । कारण कि एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता है, क्योंकि, वैसा होनेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है । शंका- ज्ञानावरणादिक आठों कर्मोंकी अवगाहना के प्ररूपणार्थ क्षेत्रानुयोगद्वारकी प्ररूपणा करते समय जीवसमासोंकी अवगाहनाकी प्ररूपणा यहां किसलिये की गई है ? समाधान - यहां इस शंकाका उत्तर कहते हैं- यह अवगाहना सम्बन्धी १ ताप्रती ' परूवणा [ कौर ] किमट्ठ-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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