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________________ २१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १२. द्वाणि असंखेजगुणाणि होति तो सुहुमेइंदियअपजत्तट्ठिदिबंधट्ठाणेसु बादरेइंदियअपजत्त-द्विदिबंधाणाणं संखेजदिभागेसु जाणि संकिलेस - विसोहिद्वाणाणि तेहिंतो बादरेईदियअपज्जत्तयस्स सव्वसंकिलेस - विसोहिद्वाणाणि णिच्छएण असंखेज्जगुणाणि होंति त्ति साहेदव्वं । अधवा अण्णेणे पयारेण गुणगारो उच्चदे । तं जहा - सुहुमेइंदियअपज्जत्तजहण्णद्विदिबंधट्ठाणादो हेट्ठिमबादरेइंदियअपजत्तट्ठिदिबंधट्ठाणगयसंकिलेस - विसो हिट्ठाणाणं णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्ये कदे जो रासी उप्पज्जदि तेण पढमगुणहाणि - दवे [ १०० ] गुणिदे सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स पढमगुणहाणिदव्वं होदि । पुणो एदम्मिं सुहुमेइंदियअपत्तयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ [ २ ] विरलिय विगं करिय अण्णोष्णब्भत्थं कादृण रूवमवणिय सेसेण गुणिदे सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस - विसोहिट्ठाणाणि होंति । पुणो एदमिचेव पढमगुणहाणिदव्वे [ १०० ] बादरेइंदियअपजत्तयस्स णाणागुणहासलागाओ [ १६ ] विरलिय विगं करिय अण्णोष्णज्भत्थं कादूण रूवमवणिय [ ६५५३५ ] सेसेण गुणिदे बादरेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस - विसोहीए द्वाणाणि होति । पुणो देसु सुहुमेईदियअपत्तयस्स संकिलेस - विसोहिडाणेहि भागे हिदेसु पलिदोवमस्स बहुभाग मात्र स्थानोंके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी अपेक्षा यदि ऊपर के असंख्यातवें भाग मात्र स्थानोंके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं, तो बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिबंधस्थानोंके संख्यातवें भागमात्र सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके स्थितिबन्धस्थानोंमें जो संक्लेश-विशुद्धिस्थान हैं उनकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके समस्त संक्लेशविशुद्धिस्थान निश्चयसे असंख्यातगुणे होते हैं, ऐसा सिद्ध करना चाहिये । अथवा अन्य प्रकारले गुणकारका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है - सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के जघन्य स्थितिबन्धस्थानकी अपेक्षा नीचेके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके स्थितिबन्धस्थान सम्बन्धी संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न होती उससे प्रथम गुणहानिके द्रन्य (२०० ) को गुणित करनेपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी प्रथम गुणहानिक द्रव्य होता है । पश्चात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी नानागुणहानिशलाकाओं ( २ ) का विरलन करके दूनाकर परस्पर गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसमेंसे एक अंक कम कर अवशिष्ट राशि (३) से उपर्युक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी प्रथम गुणहानिके द्रव्यको गुणित करनेपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं ( १२८००×३=३८४०० ) । पश्चात् बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी नानागुणहानिशलाकाओं (१६) का विरलन कर दुगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर जो ( ६५५३६) प्राप्त हो उसमें से एक अंक कम करके अवशिष्ट राशि (६५५३५ ) से इसी प्रथम गुणहानि सम्बन्धी द्रव्यको गुणित करनेपर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं (६५५३५×१००=६५५३५०० ) । इनमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका १ ताप्रतौ ' अणेण ' इति पाठः । २ अ-आ-का प्रतिषु ' एगम्मि ', ताप्रतौ 'एग ( द ) म्मि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ( ३ ) इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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