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________________ १, २, ६, १.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे पदमीमांसा [७९ एदं पि देसामासियसुतं । तेणेत्थ सेसणवपदाणि वत्तवाणि। देसामासियत्तादो चैव सेसतेरस सुत्ताणमेत्थ अंतब्भावो वत्तव्वा । एत्थ ताव पढमसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहाणाणावरणीयवेयणा कालदो सिया उक्कस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा । सिया सादिया, पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे णाणावरणीयसव्वहिदीण सादित्तुवलंभादो । सिया अणादिया, दवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अणादित्तदंसणादो । सिया धुवा, दवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे णाणावरणीयकालवेयणाए विणासाणुवलंभादो। सिया अदुवा, पज्जवट्ठियणयप्पणाए अद्धृवत्तदंसणादो । सिया ओजा, कत्थ वि कालविसेसे कलि-तेजोजसंखाविसेसाणमुवलंभादो । सिया जुम्मा, कत्थ वि कालविसेसे कद-बादरजुम्माणं संखाविससाणमुवलंभादो । सिया ओमा, कत्थ वि कालविसेसे परिहाणिदसणादो। सिया विसिट्ठा, कत्थ वि वड्डिदसणादो । सिया जोमणोविसिट्ठा, कत्थ वि बंधवसेण कालस्स अवट्ठाणदंसणादो J१३ । संपहि बिदियसुत्तस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा- उक्कस्सणाणावरणीयवेयणा नहण्णा अणुक्कस्सा च ण होदि, पउिवक्खत्तादो। सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमासेस यह भी देशामर्शक सूत्र है । इसलिये यहां शेष नौ पदोंको और कहना चाहिये। देशामर्शक होनेसे ही शेष तेरह सूत्रोंका इसमें अन्तर्भाध बतलाना चाहिये। उनमें यहां पहिले प्रथम सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- ज्ञानावरणीयघेदना कालकी अपेक्षा कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य और कथंचित् अजघन्य है । वह कथंचित् सादि भी है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर झोनावरणीयकी सभी स्थितियां सादि पायी जाती हैं। कथंचित् वह अनादि भी है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करमेपर शानावरणीयकी वेदनामें अनादिता देखी जाती है। कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर ज्ञानावरणीयकी कालवेदनाका विनाश नहीं पाया जाता है । कथंचित् वह अध्रुव है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर उसकी अस्थिरता देखी जाती है । कथंचित् वह ओज है, क्योंकि, किसी कालविशेषमें कलिओज और तेजोज संख्याविशेष पाये जाते हैं । कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि, किसी कालविशेषमें कृतयुग्म और बादरयुग्म संख्याविशेष पाये जाते है । कथंचित् वह ओम है, क्योंकि, किसी कालविशेष में हानि देखी जाती है। कथंचित यह विशिष्ट है. क्योंकि. किसी कालविशेष में वृद्धि देखी जाती है। कथंचित वह नोमनोविशिष्ठ है, क्योंकि, कहींपर बन्धके वशसे कालका अवस्थान देखा जाता है । [इस प्रकार ज्ञानावरणीयकालवेदना तेरह (१३) पद स्वरूप है । अब द्वितीय सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयबेदना जघन्य और अनुत्कृष्ट नहीं होती, क्योंकि, ये उससे विरुद्ध हैं। कथंचित् वह अजघन्य है, क्योंकि, जघन्यसे ऊपरके समस्त कालविकल्पोंमें अवस्थित अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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