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________________ २१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. थोवत्तविरोहादो ति । तदो संकिलेसट्ठाणाणि जहण्णट्ठिदिप्पहुडि विसेसाहियवड्डीए, उक्कस्सहिदिप्पहुडि विसोहिट्ठाणाणि विसेसाहियवड्डीए गच्छंति [त्ति ] विसोहिट्ठाणहितो संकिलेसट्टाणाणि विसेसाहियाणि त्ति सिद्धं । बादरेइंदियअपज्जयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।। ५२ ॥ सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणेहितो बादरेइंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि त्ति सुत्तेहि परूविदाणि । तदो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेसविसोहिहाणेहितो बादरेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणेहि संखेजगुणेहि होदव्यं । तेण असंखेजगुणाणि त्ति सुत्तवयणं ण घडदे ? एत्थ परिहारो उच्चदे-जदि सबहिदीणं संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि सरिसाणि चेव होंति तो संखेजगुणत्तं जुज्जदे । ण च सवहिदिसंकिलेस-विसोहिहाणाणं सरिसत्तमस्थि, जहण्णुक्कस्सटिदिप्पहुडि संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणमसंखेज्जभागवड्डीए गमणुवलंभादो । तेण सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणेहितो बादरेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तं जुजदि त्ति घेत्तव्वं'। ___ अतएव संक्लेशस्थान जघन्य स्थितिसे लेकर उत्तरोत्तर विशेष अधिकके क्रमसे तथा विशुद्धिस्थान उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर विशेष अधिक क्रमसे जाते हैं, इसीलिये विशुद्धिस्थानोंकी अपेक्षा संक्लेशस्थान विशेष अधिक हैं, यह सिद्ध होता है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५२ ॥ शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुण हैं, ऐसा सूत्रों ( ३७-३८) में कहा जा चुका है । अतएव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धि स्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशद्धिस्थान संख्यातगुणे होना चाहिये । इसीलिये 'असंखेज्जगुणाणि' यह सूत्रवचन घटित नहीं होता है ? . समाधान इस शंकाका परिहार कहते हैं-यदि सभी स्थितियोंके संक्लेशविशुद्धिस्थान सदृश ही होते, तो बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेशविशुद्धिस्थानोंको संख्यातगुणा कहना उचित था । परन्तु सब स्थितियोंके संक्लेशविशुद्धिस्थान सष्टश होते नहीं हैं, क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर क्रमशः संक्लेश और विशुद्धि स्थानोंका गमन असंख्यातभागवृद्धिके साथ पाया जाता है । अतएव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश विशुद्धिस्थानोंसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंको असंख्यातगुणा कहना उचित है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।। १ कथमेवं गम्यते सर्वत्राप्यसंख्येयगुणानि संक्लेशस्थानानीति चेदुच्यते इह सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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