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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड कुदो ? असंखेजपलिदोवमपढमवग्ग मूलपमाणत्तादो । एयमाबाहा कंदयमसंखेज्जगुणं ॥ १२९ ॥ णाणापदेसगुणहाणिसला गाहि असंखेजवस्सपमाणाहि कम्मट्ठिदीए ओवट्टिदाए एयपदेस गुणहाणिट्ठाणंतरमागच्छदि । उक्कस्साबाहाए संखेज्जवस्समेत्ताए अंतोमुहुत्तमेत्ताए च सग-सगुक्कस्सट्ठिदीए ओवट्टिदाए जेणेगमाबाहा कंदयपमाणं होदि, तेणेगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरादो एगमाबाहाकंदयमसंखेज्जगुणमिदि घेत्तव्वं । २७२ ] जहण्णओ द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो ॥ १३० ॥ एगमाबाहाकंदयं णाम पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, जहण्णट्ठिदिबंधो पुण अंतोकोडाको डिमेत्तसागरोवमाणि । तेण एगाबाहाकंदयादो जहण्णओ द्विदिबंधो असंखेजगुण दो। ठिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ १३१ ॥ जदिबंधादो उक्कस्सट्ठिदिबंधो जेण संखेजगुणो तेण द्विदिबंधट्ठाणाणि वि क्योंकि, वे पत्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंके बराबर हैं । एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है ॥ १२९ ॥ [ ४, २, ६, १२९. असंख्यात वर्ष प्रमाण नानाप्रदेशगुणहानिशलाकाओंका कर्मस्थितिमें भाग देनेपर एक गुणहानिस्थानान्तर लब्ध होता है । संख्यात वर्ष मात्र व अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट आबाधाका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर चूंकि एक आबाधाकाण्डकका प्रमाण होता है, अत एव एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरकी अपेक्षा एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ॥ १३० ॥ चूंकि एक आबाधाकाण्डक पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, परन्तु जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपमों प्रमाण है; अत एव एक आबाधाकाण्डककी अपेक्षा जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा हो जाता है । स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ १३१ ॥ चूंकि जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, अतः उससे १ तेभ्योऽपि अर्थेन कंडक - [पंचसंग्रहे पुनरेतस्य स्थानेऽवाघाकंडकमित्येतदेवोपलभ्यते ] मसंख्येयगुणम् ( ७ ) । क.प्र. ( म. टी. ) १,८६. २ तस्माज्जन्यः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुगः, अन्तः सागरोपमकोटी कोटी प्रमाणत्वात् । संज्ञिपंचेन्द्रिया हि श्रेणिमनारूढा जघन्यतोऽपि स्थितिबन्धमन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणमेव कुर्वन्ति ( ८ ) । क. प्र. ( म. टी. ) १,८६. ३ ततोऽपि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि ( ९ ) । क. प्र. ( म. टी. ) १,८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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