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________________ ४, २, ५, ९९. ) वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं [७३ पज्जत्ताणं हेट्ठिमाओ एक्कारस उक्कस्सओगाहणाओ उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सओगाहणाए' वट्टमाणस्स परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स होति । एदाओ ओगाहणाओ अप्पप्पणो जहण्णादो उक्कस्साओ विसेसाहियाओ होति । सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणप्पहुडि सव्वजहण्णुक्कस्सोगाहणाओ जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरपज्जसजहण्णोगाहणं पाति ताव अंगुलरस असंखेज्जदिभागमेतीयो। बीइंदियादिपज्जत्ताणं जहण्णागाहणाओ अंगुलस्स संखेज्जदिभागमेतीयों बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा अणुंधरिम्हि होदि । तीदियपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा कुंथुम्हि होदि । चरिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णागाहणा काणमच्छियाए । पंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा सित्थमच्छम्मि होदि । तीइंदियपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणा तिण्णिगाउअप्पमाणा। सा कम्हि होदि ? गोम्हिम्हि । चरिंदियपज्जत्तयरस उक्कस्सोगाहणा चत्तारिगाउअप्पमाणा। सा कत्थ ? भमरम्मि । बीइंदियस्स पज्जत्तयरस उक्कस्सोगाहणा बारस जोयणाणि । सा कत्थ ? संखम्मि । एइदियउक्कस्सोगाणा संखेज्जाणि जोयणाणि । सा कत्थ ? जोयणसहस्सायाम निर्वृत्तिपर्याप्तकोंकी अधस्तन ग्यारह उत्कृष्ट अवगाहनायें उत्कृष्ट अबगाहनामें वर्तमान व परम्परा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए उत्कृष्ट योगवाले जीवके होती हैं । ये अवगाहनायें अपने अपने जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक होती हैं। सूक्ष्म निगोद लब्ध्य पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे लेकर सब जघन्य व उत्कृष्ट अवगाहनाये जब तकं बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहनाको प्राप्त होती हैं तब तक अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र रहती हैं। द्वीन्द्रियादिक पर्याप्त जीवोंकी जघन्य अवगाहनायें अंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वीन्द्रिय पर्याप्त की जघन्य अवगाहना अनुन्धरीके होती है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना कुंथुके होती है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककी वगाहना कानमक्षिकाके होती है । पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना सिक्थ मत्स्यके होती है। श्रीन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूति प्रमाण है। वह किसके होती है ? वह गोम्हीके होती है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना चार गटयूति प्रमाण है। वह कहांपर होती है ? वह भ्रमरके होती है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन प्रमाण है। वह कहांपर होती है ? वह शंखके होती है। एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात योजन प्रमाण है। वह कहां होती है ? वह एक हजार योजन आयाम और एक योजन विस्तार ताप्रती ' ओगाहणाओ' इति पाठः । २ अप्रतो' असंखेज्जदिभागमेतीयो' इति पाठः । ३ बि-ति-चपपुण्णजहण्णं अणुंधरी कुंथु-काणमच्छीसु । सिच्छयमच्छे विंदंगुलसंखं संखगुणिदकमा ॥ गो. जी. ९६. छ. ११-१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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