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________________ ४, २, ६, २१६. ] वेयणमद्दा हियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंध झवसाणपरूवणा [ ३३७ दो ? सादबिट्ठाणियजवमज्झस्स उवरि सागाराणागारपाओग्गट्ठिदिबंध ज्झवसाणेहिंतो असादबिट्ठाणियजवमज्झस्स हेट्ठिमएयंतसागारपाओग्गट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणमसुहतुवलंभादो । मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २९४ ॥ कारणं सुगमं । असादस्स चेव बिट्टाणियजवमज्झस्सुवरि मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २१५ ॥ देसि हिदिबंधाणाणं संखेज्जगुणत्तस्स कारणं पुव्वं परुविदमिदि णेह परूविज दे । सागाराणागारपाओग्गट्ठिदिबंधट्ठाण पहुडिबिट्ठाण - तिट्ठाण - चउद्वाणपाओग्गादिमिसेसदिहिंतो संखेज्जगुणमद्भाणमुवरि गंतॄण असादस्स बिट्ठाणजवमज्झस्स सागार - अणगारपाओग्गाणाण होंति । कुदो ? पयडिविसेसेण तदो संखेज्जगुणं गंतॄण तदुप्पत्तिविरोहाभावादो । एयंतसागारपाओग्गट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २१६ ॥ सादस्स कारणं सुगमं । इसका कारण यह है कि साता के द्विस्थानिक यवमध्यके ऊपरके साकार व अनाकार उपयोगके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानों की अपेक्षा असाताके द्विस्थानिक यवमध्यके नीचे के सर्वथा साकार उपयोगके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अशुभ पाये जाते हैं । मिश्र स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २९४ ॥ इसका कारण सुगम है । ऊपर मिश्र स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१५ ॥ इन स्थितिबन्धस्थानोंके संख्यातगुणे होने का जो कारण है उसकी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है, अतः वह यहां फिर से नहीं की जा रही है । साता वेदनीयके साकार और अनाकार उपयोग के योग्य स्थितिबन्धस्थानोंको लेकर द्विस्थान त्रिस्थान एवं चतुस्थान योग्य इत्यादि नीचे की समस्त स्थितियोंसे संख्यातगुणे अध्वान आगे जाकर असातावेदनीयके द्विस्थान यवमध्यके साकार व अनाकार उपयोग योग्य स्थान होते हैं, क्योंकि, प्रकृति विशेष के कारण उनसे संख्यातगुणे स्थान आगे जाकर उनके उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है । एकान्ततः साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१६ ॥ इसका कारण सुगम है । १ ततस्तासामेव परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरस्यवमध्यादधः पाश्चात्येभ्य ऊर्ध्व मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणाणि ११ । क. प्र. ( म. टी. ) १,९९ । २ तेभ्योऽपि तासामेवाशुभपरावर्तमानप्रकृतीनां द्विस्थानकरस्यवमध्यादुपरि स्थितिस्थानानि मिश्राणि संख्येयगुणानि १२ । क. प्र. ( म. टी ) १, ९९. ३ तेभ्योऽप्युपरि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १३ । क.प्र. (म. टी.) १, ९९. । छ. ११-४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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