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'छक्खंडागमे वेयणाखंड - [४, २, ६, २६९. णाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । अणुक्कस्सियासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णहिदिअज्झवसाणमेत्तेण । उक्कस्सियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि ।को गुणगारो? आवलियाए असंखेजदिभागो। अजहणियासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? अजहण्ण-अणुक्कस्सहिदिबंधज्झवसाणट्ठाणमेत्तेण । सव्वासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णहिदिअज्झवसाणहाणमेत्तेण । एवं पगणणा त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।।
अणुकट्ठीए णाणावरणीयस्स जहणियाए द्विदीए जाणि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ताणि बिदियाए हिदीए बंधज्झवसाणट्ठाणाणि अपुव्वाणि' ॥२६९ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णभाणे संदिट्ठी उच्चदे । तं जहा—जहण्णट्ठिदीए विणा उक्कस्सहिदिपमाणं सत्त ७ । धुवहिदिपमाणं पंच ५। धुवहिदीए सह उक्कस्सहिदिपमाणमेदं १२ । पुणो एदिस्से समयचरणं काढूण धुवहिदिप्पहुडि उवरिमसव्वहिदिविसेसेसु सव्वज्झ
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गुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक हैं। अनुत्कृष्ट स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? जघन्य स्थिति सम्बन्धी अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलिका असंख्यातवां भाग है। अजघन्य स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितियोंके अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे वे अधिक हैं। सब स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? अजघन्य स्थितियोंके अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे वे अधिक हैं। इस प्रकार प्रगणमा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
- अनुकृष्टिकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिमें जो स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं द्वितीय स्थितिमें वे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं और अपूर्व स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान भी हैं ॥ २६९॥ , इस सूत्रका अर्थ कहते समय संदृष्टि कही जाती है। वह इस प्रकार हैजघन्य स्थितिके विना उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण सात (७) है । ध्रुवस्थितिका प्रमाण पांच (५) है। ध्रुवस्थितिके साथ उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण यह है-१२। इसके समयोंकी
१सांप्रतमनुकृष्टिश्चिन्त्यते । सा च न विद्यते । तथा हि-ज्ञानावरणीयस्य जघन्यस्थितिबन्धे न्यध्यवसायस्थानानि, तेभ्यो द्वितीयस्थितिबन्धेऽन्यानि, तेभ्योऽपि तृतीयस्थितिबन्धेऽन्यानि, एवं तावद्वाच्यं यावदुस्कृष्ठा स्थितिः। एवं सर्वेषामपि कर्मणां दृष्टव्यम् (१-२)। क. प्र. (म. टी.) १,८८.।
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