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________________ १, २, ५, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [४७ खंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरतेउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसा जादा ति । तदो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरआउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसा जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कारणं पुव्वं व परूवेदव्वं । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डाए इममोगाहणमावलियाए असंखेज्जभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरआउक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाएं ओगाहणाए सरिसा जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए अप्पिदोगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावे. दव्वा जाव बादरआउक्काइयणिव्वन्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा ओगाहणा पदसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरपुढविकाइयणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण अप्पिदोगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण वह बादर तेजकायिक निवृत्तिपर्याप्त ककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर जल कायिक निर्वृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। कारणकी प्ररूपणा पहिले के ही समान करना चाहिये । पश्चात इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा इस अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर जलकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यात भाग वृद्धि द्वारा विवक्षित अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे स्वण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर जलकायिक निर्वतिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। कारणकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करना चाहिये । फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे विवक्षित अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्र इस अवगाहनाको १ प्रतिषु ' उक्कस्सिया' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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